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"दु:ख: अंतर की ऊष्मा / पूनम चौधरी" के अवतरणों में अंतर

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सहेजकर रखा
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माँ का ऊन से बुना स्वेटर,
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जिसमें अब भी
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उनकी देह-गंध
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धीरे-धीरे साँस लेती है।
  
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न उत्तर चाहते हैं —
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धूप की पतली परत की तरह
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हर रोज़ उनका ताप महसूस करते हैं।
  
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किसी अनाम देवता की तरह
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हमारे भीतर रहता है —
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हर धड़कन में
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किसी गूँगे स्मरण की तरह उपस्थित।
  
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कभी-कभी
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दु:ख अधूरे प्रेम
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की तरह होता है —
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सूखे फूल की स्मृति- सा,
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जिसे किताब के पन्नों के बीच
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एक समय की तरह
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हमेशा सुगंधित बना रहे।
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सिर्फ देना जानते हैं,
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और जब हम टूटते हैं,
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सिरहाने बैठ
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एक अनुप्रास की तरह
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लोरी बनकर बहते हैं।
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वे दुख
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हमें रोकते नहीं,
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छोड़ते भी नहीं।
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वे
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जैसे बंजर ज़मीन में उगा कोई नीम,
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जिसकी छाया
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कठोर नहीं,
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बस थोड़ी-सी नम होती है।
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जब दुख गहराता है,
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वह पीड़ा नहीं देता —
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वह
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प्रेम की भूली हुई भाषा बन जाता है,
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जिसमें कोई आखर नहीं होता —
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केवल
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उन हथेलियों की ऊष्मा होती है,
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जो अब नहीं हैं,
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हर बार आँख मूँदने पर
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कंधे पर टिक जाती हैं।
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और तब
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धीरे-से समझ आता है —
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कि
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दु;ख कहीं नहीं जाता।
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कभी माँ,
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कभी प्रेम,
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कभी कविता बनकर
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हृदय में
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अविराम अंकित रह जाता है।
 
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19:13, 5 अगस्त 2025 के समय का अवतरण

कुछ दुख
विलाप नहीं करते —
वे बस
हमारे भीतर टिके रहते हैं,
जैसे पुराने संदूक़ में
सहेजकर रखा
माँ का ऊन से बुना स्वेटर,
जिसमें अब भी
उनकी देह-गंध
धीरे-धीरे साँस लेती है।

वे
न प्रश्न करते हैं,
न उत्तर चाहते हैं —
बस
धूप की पतली परत की तरह
पलकों पर टिक जाते हैं;
जहाँ कोई देख नहीं सकता,
पर हम
हर रोज़ उनका ताप महसूस करते हैं।

कभी-कभी लगता है
दु:ख
किसी अनाम देवता की तरह
हमारे भीतर रहता है —
मौन,
धैर्यवान,
हर धड़कन में
किसी गूँगे स्मरण की तरह उपस्थित।


कभी-कभी
दु:ख अधूरे प्रेम
की तरह होता है —
सूखे फूल की स्मृति- सा,
जिसे किताब के पन्नों के बीच
हमने
एक समय की तरह
बंद कर दिया है —
ताकि वह
हमेशा सुगंधित बना रहे।


कुछ दु:ख
माँ जैसे होते हैं —
सिर्फ देना जानते हैं,
बिना कहे,
बिना थमे।
और जब हम टूटते हैं,
तो
रात्रि की गहरी चुप्पी में
सिरहाने बैठ
एक अनुप्रास की तरह
लोरी बनकर बहते हैं।

वे दुख
हमें रोकते नहीं,
पर
छोड़ते भी नहीं।
वे
संवेदना बनकर रहते हैं अंतर में —
जैसे बंजर ज़मीन में उगा कोई नीम,
जिसकी छाया
कठोर नहीं,
बस थोड़ी-सी नम होती है।

जब दुख गहराता है,
वह पीड़ा नहीं देता —

वह
प्रेम की भूली हुई भाषा बन जाता है,
जिसमें कोई आखर नहीं होता —
केवल
उन हथेलियों की ऊष्मा होती है,
जो अब नहीं हैं,
पर
हर बार आँख मूँदने पर
कंधे पर टिक जाती हैं।


और तब
धीरे-से समझ आता है —
कि
दु;ख कहीं नहीं जाता।
वह
कभी माँ,
कभी प्रेम,
कभी कविता बनकर
हृदय में
अविराम अंकित रह जाता है।
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