"मैं सूर्य हूँ / पूनम चौधरी" के अवतरणों में अंतर
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+ | रश्मियाँ मेरी | ||
+ | भेदतीं तम— | ||
+ | कण-कण में | ||
+ | फूँक देतीं जीवन। | ||
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+ | मैं अग्नि हूँ— | ||
+ | शक्ति भी, सांत्वना भी। | ||
+ | ठंडी सुबहों में | ||
+ | जगा देता साहस, | ||
+ | पृथ्वी को कहता— | ||
+ | चलो, उठो! | ||
+ | तुम्हारे भीतर ही | ||
+ | विश्वास का स्रोत है। | ||
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+ | मैं समय का हृदय— | ||
+ | अविच्छिन्न लय, | ||
+ | अनवरत गति। | ||
+ | न केवल उदय-अस्त का चक्र, | ||
+ | मैं चेतना की परिक्रमा हूँ। | ||
+ | तर्क, प्रेम, अनुभव— | ||
+ | सभी को जोड़ता, | ||
+ | सीमाओं को मिटाता। | ||
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+ | मैं आलोक भी, | ||
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+ | जो देखे आर-पार। | ||
+ | जलना भी मैंने सिखाया— | ||
+ | करुणा में। | ||
+ | चमकना भी— | ||
+ | विनम्रता में। | ||
+ | अडिग रहना— | ||
+ | बिना आभार चाहे। | ||
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+ | मैं आग भी— | ||
+ | माँ के आँचल में छुपी अँगीठी- सा ताप, | ||
+ | सर्दी में सांत्वना, | ||
+ | भीतर से कठोर | ||
+ | जैसे पर्वत का लोहा। | ||
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+ | गर्मी में— | ||
+ | पसीने का खारापन भी | ||
+ | मेरे श्रम का गीत है। | ||
+ | मेरी अदृश्य डोरी | ||
+ | फल तक पहुँचाती प्रयास को। | ||
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+ | साँझ— | ||
+ | अवसान नहीं, | ||
+ | रंगों का वृहद् आख्यान। | ||
+ | लाल—क्षमा। | ||
+ | सुनहरा—संतोष। | ||
+ | बैंगनी—थके दिन के माथे पर | ||
+ | शांत चुम्बन। | ||
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+ | यदि मैं न रहूँ एक दिन, | ||
+ | तो पृथ्वी हिमशिला हो जाएगी। | ||
+ | नदियाँ सो जाएँगी | ||
+ | पारदर्शी समाधियों में। | ||
+ | वन—भूल जाएँगे | ||
+ | पत्तों का इतिहास। | ||
+ | मैं केवल रोशनी नहीं, | ||
+ | मैं समय का धड़कता हृदय हूँ। | ||
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+ | और हाँ, | ||
+ | एक दिन | ||
+ | बुझ जाऊँगा मैं भी। | ||
+ | लाल दानव बनकर | ||
+ | अपनों को अंतिम आलिंगन दूँगा। | ||
+ | फिर सिमट जाऊँगा | ||
+ | शांत दीप की तरह— | ||
+ | अंधकार में सँजोता | ||
+ | उजाले की स्मृति। | ||
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08:12, 17 अगस्त 2025 के समय का अवतरण
मैं सूर्य हूँ—
आकाश की अनंत चौकी पर
जागा प्रहरी।
स्वर्ण रथों पर
मापता ब्रह्मांड,
रश्मियाँ मेरी
भेदतीं तम—
कण-कण में
फूँक देतीं जीवन।
मैं अग्नि हूँ—
शक्ति भी, सांत्वना भी।
ठंडी सुबहों में
जगा देता साहस,
पृथ्वी को कहता—
चलो, उठो!
तुम्हारे भीतर ही
विश्वास का स्रोत है।
मैं समय का हृदय—
अविच्छिन्न लय,
अनवरत गति।
न केवल उदय-अस्त का चक्र,
मैं चेतना की परिक्रमा हूँ।
तर्क, प्रेम, अनुभव—
सभी को जोड़ता,
सीमाओं को मिटाता।
मैं आलोक भी,
दृष्टि भी—
जो देखे आर-पार।
जलना भी मैंने सिखाया—
करुणा में।
चमकना भी—
विनम्रता में।
अडिग रहना—
बिना आभार चाहे।
मैं आग भी—
माँ के आँचल में छुपी अँगीठी- सा ताप,
सर्दी में सांत्वना,
भीतर से कठोर
जैसे पर्वत का लोहा।
गर्मी में—
पसीने का खारापन भी
मेरे श्रम का गीत है।
मेरी अदृश्य डोरी
फल तक पहुँचाती प्रयास को।
साँझ—
अवसान नहीं,
रंगों का वृहद् आख्यान।
लाल—क्षमा।
सुनहरा—संतोष।
बैंगनी—थके दिन के माथे पर
शांत चुम्बन।
यदि मैं न रहूँ एक दिन,
तो पृथ्वी हिमशिला हो जाएगी।
नदियाँ सो जाएँगी
पारदर्शी समाधियों में।
वन—भूल जाएँगे
पत्तों का इतिहास।
मैं केवल रोशनी नहीं,
मैं समय का धड़कता हृदय हूँ।
और हाँ,
एक दिन
बुझ जाऊँगा मैं भी।
लाल दानव बनकर
अपनों को अंतिम आलिंगन दूँगा।
फिर सिमट जाऊँगा
शांत दीप की तरह—
अंधकार में सँजोता
उजाले की स्मृति।
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