भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"दिये की लौ जो हवाओं में थरथराती है / चन्द्र त्रिखा" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्र त्रिखा |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
22:53, 18 अगस्त 2025 के समय का अवतरण
दिये की लौ जो हवाओं में थरथराती है
जिन्दगी मौत से आगाह हुई जाती है
अक्सर आबाद इलाकों में ही दम घुटता है
मरघटों में तो बड़ी ठण्डी हवा आती है
कैसी आवारा सियासत है जो हर शाम ढले
झोंपड़ी छोड़ के महलों में चली आती है
हमने सूरज को भी चंदा को भी बिकते देखा
दर्द के गाँव से बाज़ार-सी बू आती है
हमने यादों को संजोया भी सलीके से, मगर
जिन्दगी फ़िर भी बिखरती ही चली जाती है
गैर से पूछते हैं अपने ही घर का रस्ता
एक आवारा गज़ल यूं भी तो भटकाती है