"तुम थोड़ा तो बदलो / निर्देश निधि" के अवतरणों में अंतर
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| − | वीतरागिनी भी तुम्हीं से | + | मैं वीतरागिनी भी तुम्हीं से |
जैसे तुम | जैसे तुम | ||
मुझसे मिलकर नृत्य रात गोपाल | मुझसे मिलकर नृत्य रात गोपाल | ||
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उन्हें बाँध देती हूँ तुम्हारे टखनों में | उन्हें बाँध देती हूँ तुम्हारे टखनों में | ||
और खींच देती हूँ झटके से | और खींच देती हूँ झटके से | ||
| − | ताकि इस वार से | + | ताकि इस वार से अनजाने |
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क्यों कर रही हूँ मैं ऐसा | क्यों कर रही हूँ मैं ऐसा | ||
ले लेना चाहती हूँ | ले लेना चाहती हूँ | ||
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इतना जानती हूँ कि | इतना जानती हूँ कि | ||
प्रतिशोध से और भी भड़कती है आग | प्रतिशोध से और भी भड़कती है आग | ||
| − | शायद मुझे ही | + | शायद मुझे ही निःस्पृह हो |
तुम्हें कर देना होगा क्षमा | तुम्हें कर देना होगा क्षमा | ||
बशर्ते कि तुम थोड़ा तो बदलो। | बशर्ते कि तुम थोड़ा तो बदलो। | ||
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13:58, 26 अक्टूबर 2025 के समय का अवतरण
तुम मेरे वजूद का बेजोड़ हिस्सा हो
ठीक वैसे ही
जैसे मैं तुम्हारे वजूद का
मैं शृंगारिणी भी तुम्हारी वज़ह से
मैं वीतरागिनी भी तुम्हीं से
जैसे तुम
मुझसे मिलकर नृत्य रात गोपाल
और मेरे बिन वीतरागी राम
पर कभी तुम मुझपर ढाते हो कहर
कभी मैं तुमपर उछालती हूँ हथेली भर-भर कीचड़
उलीच देती हूँ मन की सारी गंद तुमपर
भले ही तुमने धोकर अपना तन पहना हो श्वेत वसन
की हो योग साधना
बनाया हो मन कुन्दन
अपने पैरों के बंद खोलकर
उन्हें बाँध देती हूँ तुम्हारे टखनों में
और खींच देती हूँ झटके से
ताकि इस वार से अनजाने
मुँह के बल गिरो पक्के रास्ते पर तुम
क्यों कर रही हूँ मैं ऐसा
ले लेना चाहती हूँ
सदियों का प्रतिशोध
गुज़र जाना चाहती हूँ
तुम निरंकुश जार के सिर से
या अभिशप्त है समय ही
अशांति की कोख में क़ैद हो जाने को
नहीं जानती मैं
पर हाँ
इतना जानती हूँ कि
प्रतिशोध से और भी भड़कती है आग
शायद मुझे ही निःस्पृह हो
तुम्हें कर देना होगा क्षमा
बशर्ते कि तुम थोड़ा तो बदलो।
