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14:18, 26 अक्टूबर 2025 के समय का अवतरण
टिक-टिक,
टिक-टिक
और एक असह्य भड़ाम।
चेतना जब लौटी
तब तक आधा,
ठीक आधा ही बचा था तेजस,
दर्जी के कोरे कपड़े की तरह
कहीं से काटे, कहीं से सिले जाने के बाद
क्या घृणित आतंक को भी
किसी "वाद" की संज्ञा से नवाजें?
जिसने हजारों तेजसों की पूर्णता को
कर दिया है अधूरी
पिछले कर्म?
कौन से कर्म कर दिये होंगे भला
उस कोरे किशोर ने, इस फल की पात्रता के?
बीसियों बरस से सिल रहा है
पल-पल उधड़ता शरीर
मन को-सी लेने का साहस
रेत पर खिंची लकीर
मनसा, वाचा, कर्मणा उसकी सभी शक्तियों को
निगल गया है अजगर आतंक का
भूत का तेजस बन गया बेबस
बरसों पहले फेंक आए थे पिता
घर की सब घड़ियाँ समंदर में
फिर भी,
आज तक थमता नहीं है
भयानक शोर उस हल्की-सी टिक-टिक का।
जीने की लाख कोशिशें,
पर दशकों बाद भी एक मौत
इतनी ही सच है उसमें
जितनी कि सारंध्री में द्रौपदी
और वृहन्नला में अर्जुन।
