"सुनार नदी के पार / निर्देश निधि" के अवतरणों में अंतर
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| − | + | लझी, अलसाई और बिखरी हुई -सी मैं | |
| − | लिखना चाहती थी | + | लिखना चाहती थी |
| − | शब्द - शब्द प्रेम में पागकर | + | शब्द - शब्द प्रेम में पागकर |
| − | एक प्रेम कविता | + | एक प्रेम कविता |
| − | + | वसंत की ठीक उस रात | |
| − | जिस रात चाँद को नहीं आना था | + | जिस रात चाँद को नहीं आना था |
| − | बस आना था तुम्हें, | + | बस आना था तुम्हें, |
| − | खुद को चाँद से बदलकर | + | खुद को चाँद से बदलकर |
| − | पर उस रात तुमने | + | पर उस रात तुमने |
| − | चाँद से नहीं बदला था खुद को | + | चाँद से नहीं बदला था खुद को |
| − | तुमने तो बदल लिया था खुद को | + | तुमने तो बदल लिया था खुद को |
| − | सुनार नदी के किनारे बसे | + | सुनार नदी के किनारे बसे |
| − | नारंगी, नरम पंखों वाले नर चक्रवाक से, | + | नारंगी, नरम पंखों वाले नर चक्रवाक से, |
| − | तुम अपनी काली कंठी में गूँथ लाए थे वियोग का काला धागा | + | तुम अपनी काली कंठी में गूँथ लाए थे वियोग का काला धागा |
| − | निस्सहाय हो तब | + | निस्सहाय हो तब |
| − | वसंत की वह नए पत्तों वाली, सुगंधियों भरी | + | वसंत की वह नए पत्तों वाली, सुगंधियों भरी |
| − | छंदहीन रात | + | छंदहीन रात |
| − | जपी थी मैंने किसी मृत्युंजय मंत्र की तरह | + | जपी थी मैंने किसी मृत्युंजय मंत्र की तरह |
| − | मेरी स्मृति की बदलियों में यह कहते हुए | + | मेरी स्मृति की बदलियों में यह कहते हुए |
कौंधे थे कबीर – | कौंधे थे कबीर – | ||
| − | + | ‘साँझ पड़े दिन बीतबै चकवी दीन्ही रोय | |
| − | + | चल चकवा वा देस को, जहाँ रैन नहिं होय’ | |
| − | पर नहीं था कोई ऐसा देश | + | पर नहीं था कोई ऐसा देश |
| − | जहाँ ना थी कोई छोटी या बड़ी रात्रि | + | जहाँ ना थी कोई छोटी या बड़ी रात्रि |
| − | तुम वसंत की नए पत्तों वाली हर रात्रि | + | तुम वसंत की नए पत्तों वाली हर रात्रि |
| − | रहे थे सुनार नदी के उस पार | + | रहे थे सुनार नदी के उस पार |
| − | और चकवी का भाग्य लिये मैं | + | और चकवी का भाग्य लिये मैं |
रह गई थी इस पार | रह गई थी इस पार | ||
| − | बिन लिखी प्रेम कविता के साथ | + | बिन लिखी प्रेम कविता के साथ |
| − | + | ग्रीष्म की तन झुलसाती रात्रियाँ भी खो दी थीं तुमने | |
| − | सब की सब, एक के बाद एक | + | सब की सब, एक के बाद एक |
| − | प्रेम की फुहारें बरसाए बगैर ही | + | प्रेम की फुहारें बरसाए बगैर ही |
| − | मैं उन घमकती गर्मियों वाली रात्रियों को | + | मैं उन घमकती गर्मियों वाली रात्रियों को |
| − | कर देना चाहती थी शीतल, | + | कर देना चाहती थी शीतल, |
| − | आषाढ़ की नवेली बदलियों पर | + | आषाढ़ की नवेली बदलियों पर |
लिखकर एक प्रेम कविता | लिखकर एक प्रेम कविता | ||
तुम थे सदा की तरह हर रात्रि | तुम थे सदा की तरह हर रात्रि | ||
| − | नदी के उस पार | + | नदी के उस पार |
और आषाढ़ की नवेली बदलियों ने नकार दिया था मेघदूत होना | और आषाढ़ की नवेली बदलियों ने नकार दिया था मेघदूत होना | ||
| − | मैं | + | मैं पावस की सुरमई छत से गिरी गीली बूँदों को |
छिड़कना चाहती थी रूखे मन की रेत पर | छिड़कना चाहती थी रूखे मन की रेत पर | ||
| − | ताकि तुम पर धूल ना उड़ सके | + | ताकि तुम पर धूल ना उड़ सके |
| − | मेरे मन के सूखे गलियारों की | + | मेरे मन के सूखे गलियारों की |
| − | और लिख सकूँ मैं एक प्रेम कविता | + | और लिख सकूँ मैं एक प्रेम कविता |
| − | अनवरत छनकती बूँदों वाली, पावस की एक अष्टमी को | + | अनवरत छनकती बूँदों वाली, पावस की एक अष्टमी को |
| − | आकंठ डूबकर राधा के प्रेम में, | + | आकंठ डूबकर राधा के प्रेम में, |
पृथ्वी पर उतरना यशोदा नन्दन बने नारायण का | पृथ्वी पर उतरना यशोदा नन्दन बने नारायण का | ||
मुझमें उड़ेलता था प्रेम की अगाध राशि | मुझमें उड़ेलता था प्रेम की अगाध राशि | ||
| − | जगाता था प्रेम में अविरल विश्वास | + | जगाता था प्रेम में अविरल विश्वास |
| − | पर तुमने चुना हर रात उस नर चक्रवाक की तर्ज पर , | + | पर तुमने चुना हर रात उस नर चक्रवाक की तर्ज पर , |
| − | सुनार नदी का वही दूसरा किनारा | + | सुनार नदी का वही दूसरा किनारा |
| − | और अधूरी रही मेरी वह प्रेम कविता | + | और अधूरी रही मेरी वह प्रेम कविता |
| − | सुनो, | + | सुनो, |
| − | शरद की उन मखमली सर्दियों वाली | + | शरद की उन मखमली सर्दियों वाली |
| − | खुद की पुनरावृत्ति करती अनगिनत, कोमल रात्रियों में | + | खुद की पुनरावृत्ति करती अनगिनत, कोमल रात्रियों में |
फिर लिखनी चाही थी मैंने वह प्रेम कविता | फिर लिखनी चाही थी मैंने वह प्रेम कविता | ||
| − | उस रात्रि रोकना चाहती थी मैं तुम्हें सुनार नदी के इस पार | + | उस रात्रि रोकना चाहती थी मैं तुम्हें सुनार नदी के इस पार |
| − | जीत जाना चाहती थी | + | जीत जाना चाहती थी |
| − | तुम्हारे उस पार जाने वाले निर्दय नियम से | + | तुम्हारे उस पार जाने वाले निर्दय नियम से |
| − | जैसे जीत गए थे अयोध्याकुमार | + | जैसे जीत गए थे अयोध्याकुमार |
| − | बुराई के विरुद्ध लड़ा गया एक युद्ध | + | बुराई के विरुद्ध लड़ा गया एक युद्ध |
| − | शरद ऋतु की आधे – अधूरे चाँद वाली दशमी को | + | शरद ऋतु की आधे – अधूरे चाँद वाली दशमी को |
| − | पर तुम्हें रोक लेने के जतन का रहस्य बताने को | + | पर तुम्हें रोक लेने के जतन का रहस्य बताने को |
| − | मुझे नहीं मिला था कोई एक भी विभीषण | + | मुझे नहीं मिला था कोई एक भी विभीषण |
| − | और तुम चल दिये थे हर बार की तरह | + | और तुम चल दिये थे हर बार की तरह |
| − | शरद की उन मखमली सर्दियों में भी | + | शरद की उन मखमली सर्दियों में भी |
| − | नदी के उस पार | + | नदी के उस पार |
| − | तुम क्या जानो उस रात्रि | + | तुम क्या जानो उस रात्रि तिरस्कृत होकर |
| − | कितना कसमसाई थी | + | कितना कसमसाई थी |
| − | मेरी वह अलिखित प्रेम कविता | + | मेरी वह अलिखित प्रेम कविता |
| − | + | शिशिर की तुम्हारी पसंदीदा महारात्रियों में | |
| − | सहेजकर ढेर सारे ओस के नरम फूल | + | सहेजकर ढेर सारे ओस के नरम फूल |
| − | गूँथ लेना चाहती थी मैं अपनी वेणी में | + | गूँथ लेना चाहती थी मैं अपनी वेणी में |
| − | करना चाहती थी सोलह शृंगार | + | करना चाहती थी सोलह शृंगार |
| − | पर तुम किसी एक रात्रि भी तो ठहरे नहीं थे | + | पर तुम किसी एक रात्रि भी तो ठहरे नहीं थे |
| − | सुनार नदी के इस पार | + | सुनार नदी के इस पार |
| − | शिशिर की महारात्रियों में सहेजे वे ओस के नरम फूल | + | शिशिर की महारात्रियों में सहेजे वे ओस के नरम फूल |
आ बसे थे मेरी आँखों की कोर में | आ बसे थे मेरी आँखों की कोर में | ||
| − | किसी अनमोल गहने की तरह | + | किसी अनमोल गहने की तरह |
| − | जिन्हें मैंने कभी नहीं चाहा था सहेजना | + | जिन्हें मैंने कभी नहीं चाहा था सहेजना |
| − | पर आँखों ने ही खुद नकार दिया था | + | पर आँखों ने ही खुद नकार दिया था |
| − | उन्हें कोर से गिराया जाना | + | उन्हें कोर से गिराया जाना |
| − | वे सहेजे रखना चाहती थीं | + | वे सहेजे रखना चाहती थीं |
| − | आशा चाँद रहित उस रात्रि की | + | आशा चाँद रहित उस रात्रि की |
जिस रात्रि, तुम रुक जाते सुनार नदी के इस पार | जिस रात्रि, तुम रुक जाते सुनार नदी के इस पार | ||
| − | पर तुम नियम से बँधे चल दिए हर साँझ के ढलते ही | + | पर तुम नियम से बँधे चल दिए हर साँझ के ढलते ही |
| − | नदी के उस पार | + | नदी के उस पार |
| − | फिर एक बार, रह गई थी प्रतीक्षित | + | फिर एक बार, रह गई थी प्रतीक्षित |
| − | मेरी वह रस भरी प्रेम कविता | + | मेरी वह रस भरी प्रेम कविता |
| − | + | हेमंत की हनक के साथ ही मुझमें | |
| − | फिर पनपी थी प्रेम लहर सी कोई एक कविता | + | फिर पनपी थी प्रेम लहर- सी कोई एक कविता |
| − | धड़क उठी थी मन की मृदंग पर थाप सी | + | धड़क उठी थी मन की मृदंग पर थाप- सी |
| − | जगमगा उठी थीं कई दिवालियाँ | + | जगमगा उठी थीं कई दिवालियाँ |
| − | अगहन की | + | अगहन की अँधियारी रात में |
| − | पर उन दिवालियों में भी | + | पर उन दिवालियों में भी |
| − | तुम नहीं रुके थे, सुनार नदी के इस पार | + | तुम नहीं रुके थे, सुनार नदी के इस पार |
| − | और रह गई थी बिना लिखी ही वह प्रेम कविता | + | और रह गई थी बिना लिखी ही वह प्रेम कविता |
| − | छहों ऋतुओं के खाली हाथ निकल जाने पर भी | + | छहों ऋतुओं के खाली हाथ निकल जाने पर भी |
| − | जड़ी रही थी बरसों - बरस | + | जड़ी रही थी बरसों - बरस |
मेरे मन की भीत पर वह प्रेम-पगी मीठी कविता | मेरे मन की भीत पर वह प्रेम-पगी मीठी कविता | ||
तब भी जब तुमने मिलाई थी अपनी चाल | तब भी जब तुमने मिलाई थी अपनी चाल | ||
| − | रात्रिकालीन वियोग परम्परा से निबद्ध, | + | रात्रिकालीन वियोग परम्परा से निबद्ध, |
| − | गोधूलि में ही ओझल हो जाने वाले सूरज से | + | गोधूलि में ही ओझल हो जाने वाले सूरज से |
| − | कई बार सोचती हूँ मैं | + | कई बार सोचती हूँ मैं |
| − | क्या सूरज भी होता है चक्रवाक ही | + | क्या सूरज भी होता है चक्रवाक ही |
| − | हंस का कोई विरल नातेदार | + | हंस का कोई विरल नातेदार |
और होती है धरती कोई बड़ी सी सुनार नदी | और होती है धरती कोई बड़ी सी सुनार नदी | ||
| − | हर साँझ चला जाता है सूरज चक्रवाक | + | हर साँझ चला जाता है सूरज चक्रवाक |
| − | इस बड़ी सुनार नदी सी धरती के उस पार | + | इस बड़ी सुनार नदी- सी धरती के उस पार |
| − | और किसी भी रात्रि नहीं पग पाते हैं मेरे शब्द | + | और किसी भी रात्रि नहीं पग पाते हैं मेरे शब्द |
| − | प्रेम की चाशनी में | + | प्रेम की चाशनी में |
| − | नहीं लिख पाती हूँ मैं किसी रात भी कोई प्रेम कविता | + | नहीं लिख पाती हूँ मैं किसी रात भी कोई प्रेम कविता |
| − | पर कोई एक रात्रि है | + | पर कोई एक रात्रि है |
| − | जो काट देगी हर वो रज्जु | + | जो काट देगी हर वो रज्जु |
| − | जो तुम्हें करती है निबद्ध नियमों से | + | जो तुम्हें करती है निबद्ध नियमों से |
| − | तब मैं चन्द्र रहित अर्धरात्रि में | + | तब मैं चन्द्र रहित अर्धरात्रि में |
| − | तुम्हारे प्रेम के आलोक में लिख लूँगी | + | तुम्हारे प्रेम के आलोक में लिख लूँगी |
वह प्रतीक्षित प्रेम कविता… | वह प्रतीक्षित प्रेम कविता… | ||
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14:26, 26 अक्टूबर 2025 के समय का अवतरण
लझी, अलसाई और बिखरी हुई -सी मैं
लिखना चाहती थी
शब्द - शब्द प्रेम में पागकर
एक प्रेम कविता
वसंत की ठीक उस रात
जिस रात चाँद को नहीं आना था
बस आना था तुम्हें,
खुद को चाँद से बदलकर
पर उस रात तुमने
चाँद से नहीं बदला था खुद को
तुमने तो बदल लिया था खुद को
सुनार नदी के किनारे बसे
नारंगी, नरम पंखों वाले नर चक्रवाक से,
तुम अपनी काली कंठी में गूँथ लाए थे वियोग का काला धागा
निस्सहाय हो तब
वसंत की वह नए पत्तों वाली, सुगंधियों भरी
छंदहीन रात
जपी थी मैंने किसी मृत्युंजय मंत्र की तरह
मेरी स्मृति की बदलियों में यह कहते हुए
कौंधे थे कबीर –
‘साँझ पड़े दिन बीतबै चकवी दीन्ही रोय
चल चकवा वा देस को, जहाँ रैन नहिं होय’
पर नहीं था कोई ऐसा देश
जहाँ ना थी कोई छोटी या बड़ी रात्रि
तुम वसंत की नए पत्तों वाली हर रात्रि
रहे थे सुनार नदी के उस पार
और चकवी का भाग्य लिये मैं
रह गई थी इस पार
बिन लिखी प्रेम कविता के साथ
ग्रीष्म की तन झुलसाती रात्रियाँ भी खो दी थीं तुमने
सब की सब, एक के बाद एक
प्रेम की फुहारें बरसाए बगैर ही
मैं उन घमकती गर्मियों वाली रात्रियों को
कर देना चाहती थी शीतल,
आषाढ़ की नवेली बदलियों पर
लिखकर एक प्रेम कविता
तुम थे सदा की तरह हर रात्रि
नदी के उस पार
और आषाढ़ की नवेली बदलियों ने नकार दिया था मेघदूत होना
मैं पावस की सुरमई छत से गिरी गीली बूँदों को
छिड़कना चाहती थी रूखे मन की रेत पर
ताकि तुम पर धूल ना उड़ सके
मेरे मन के सूखे गलियारों की
और लिख सकूँ मैं एक प्रेम कविता
अनवरत छनकती बूँदों वाली, पावस की एक अष्टमी को
आकंठ डूबकर राधा के प्रेम में,
पृथ्वी पर उतरना यशोदा नन्दन बने नारायण का
मुझमें उड़ेलता था प्रेम की अगाध राशि
जगाता था प्रेम में अविरल विश्वास
पर तुमने चुना हर रात उस नर चक्रवाक की तर्ज पर ,
सुनार नदी का वही दूसरा किनारा
और अधूरी रही मेरी वह प्रेम कविता
सुनो,
शरद की उन मखमली सर्दियों वाली
खुद की पुनरावृत्ति करती अनगिनत, कोमल रात्रियों में
फिर लिखनी चाही थी मैंने वह प्रेम कविता
उस रात्रि रोकना चाहती थी मैं तुम्हें सुनार नदी के इस पार
जीत जाना चाहती थी
तुम्हारे उस पार जाने वाले निर्दय नियम से
जैसे जीत गए थे अयोध्याकुमार
बुराई के विरुद्ध लड़ा गया एक युद्ध
शरद ऋतु की आधे – अधूरे चाँद वाली दशमी को
पर तुम्हें रोक लेने के जतन का रहस्य बताने को
मुझे नहीं मिला था कोई एक भी विभीषण
और तुम चल दिये थे हर बार की तरह
शरद की उन मखमली सर्दियों में भी
नदी के उस पार
तुम क्या जानो उस रात्रि तिरस्कृत होकर
कितना कसमसाई थी
मेरी वह अलिखित प्रेम कविता
शिशिर की तुम्हारी पसंदीदा महारात्रियों में
सहेजकर ढेर सारे ओस के नरम फूल
गूँथ लेना चाहती थी मैं अपनी वेणी में
करना चाहती थी सोलह शृंगार
पर तुम किसी एक रात्रि भी तो ठहरे नहीं थे
सुनार नदी के इस पार
शिशिर की महारात्रियों में सहेजे वे ओस के नरम फूल
आ बसे थे मेरी आँखों की कोर में
किसी अनमोल गहने की तरह
जिन्हें मैंने कभी नहीं चाहा था सहेजना
पर आँखों ने ही खुद नकार दिया था
उन्हें कोर से गिराया जाना
वे सहेजे रखना चाहती थीं
आशा चाँद रहित उस रात्रि की
जिस रात्रि, तुम रुक जाते सुनार नदी के इस पार
पर तुम नियम से बँधे चल दिए हर साँझ के ढलते ही
नदी के उस पार
फिर एक बार, रह गई थी प्रतीक्षित
मेरी वह रस भरी प्रेम कविता
हेमंत की हनक के साथ ही मुझमें
फिर पनपी थी प्रेम लहर- सी कोई एक कविता
धड़क उठी थी मन की मृदंग पर थाप- सी
जगमगा उठी थीं कई दिवालियाँ
अगहन की अँधियारी रात में
पर उन दिवालियों में भी
तुम नहीं रुके थे, सुनार नदी के इस पार
और रह गई थी बिना लिखी ही वह प्रेम कविता
छहों ऋतुओं के खाली हाथ निकल जाने पर भी
जड़ी रही थी बरसों - बरस
मेरे मन की भीत पर वह प्रेम-पगी मीठी कविता
तब भी जब तुमने मिलाई थी अपनी चाल
रात्रिकालीन वियोग परम्परा से निबद्ध,
गोधूलि में ही ओझल हो जाने वाले सूरज से
कई बार सोचती हूँ मैं
क्या सूरज भी होता है चक्रवाक ही
हंस का कोई विरल नातेदार
और होती है धरती कोई बड़ी सी सुनार नदी
हर साँझ चला जाता है सूरज चक्रवाक
इस बड़ी सुनार नदी- सी धरती के उस पार
और किसी भी रात्रि नहीं पग पाते हैं मेरे शब्द
प्रेम की चाशनी में
नहीं लिख पाती हूँ मैं किसी रात भी कोई प्रेम कविता
पर कोई एक रात्रि है
जो काट देगी हर वो रज्जु
जो तुम्हें करती है निबद्ध नियमों से
तब मैं चन्द्र रहित अर्धरात्रि में
तुम्हारे प्रेम के आलोक में लिख लूँगी
वह प्रतीक्षित प्रेम कविता…
