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|पीछे=प्रथम अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति
|आगे=द्वितीय तृतीय अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति
|सारणी=श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति
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क्या इस जगत का मूल कारणअति प्रथम सृष्टा मन हमारी बुद्धि को पावन करे, ब्रह्म कौन व् हम सभी?<br>उत्पन्न किससे, किसमें जीते, किसके हैं आधीन भी?हों बाह्य विषयासक्ति निवृति और सत्य स्थापन करें<br>किसकी व्यवस्था के अनंतर, दुःख सुख का विधान हैजिससे हमारी इन्द्रियों की शक्ति अंतर्मुख रहे, <br>कथ कौन संचालक जगत कापार्थिव पदार्थों से विमुख, कौन पर ब्रह्म महान है? से आमुख रहे॥ [ १ ]<br><br>
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::युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे।<br>::सुवर्गेयाय शक्त्या॥२॥<br>
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::कहीं मूल कारण काल को कहीं प्रवृति को कारण कहापरमेश की आराधना मय, यज्ञ में मन लीन जो,<br>::कहीं कर्म कारण तो कहीं, भवितव्य को माना महामन के ही द्वारा परम सुख , आनंद मय परब्रह्म भजो<br>::पाँचों महाभूतों को कारण, तो कहीं जीवात्माआराधना में मन लगे, और प्रार्थना विभु की करें.<br>::पर मूल कारण और कुछहम सब यथा शक्ति सतत , जिसे जानता परमात्मा। अभ्यर्थना प्रभु की करें॥ [ २ ]<br><br>
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वेदज्ञों ने तब ध्यान योग से ब्रह्म का चिंतन कियाजो व्योम में स्वर्गादि लोकों में गमन करते सदा,<br>उस आत्म भू अखिलेश ब्रह्म कोज्योति विकीरण वे करें , जाना जब मंथन किया। देवें सहारा सर्वदा.<br>परब्रह्म त्रिगुणात्मक लगे, पर सत्व, रज, तम से परेमन बुद्धि को संयुक्त हे सविता !हमारी वे करें,<br>संपूर्ण कारण तत्वों परआलस्य निद्रा , एकमेव ही शासन करे। ध्यान के जो विघ्न हैं वे सब हरें॥ [ ३ ]<br><br>
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::युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।<br>::वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः॥४॥<br>
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<span class="mantra_translation"> ::यह विश्व रूप है चक्र उसका , एक नेमि केन्द्र हैजिस परम ब्रह्म में विप्र अपनी ,बुद्धि करते प्रवृत हैं<br>::सोलह सिरों अग्नि होत्र व् तीन घेरों, पचास अरों स्वस्ति वृतियों में विकेन्द्र है।चित्त जिनका नियत है.<br>::छः अष्टको बहु रूपमय और त्रिगुण आवृत प्रकृति हैऐसे विचारक चिंतकों से हम करें स्तुति वही,<br>::इस विश्व चक्र में सम अरोंजिस सर्वव्यापी , अंतःकरण अज्ञ ब्रह्म की प्रवृति है। महिमा न जाती कही॥ [ ४ ]<br><br>
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यदि विश्व रूप नदी का है, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ मन बुद्धि के स्वामी तथा अति आदि कारण सृष्टि के,<br>दुर्गम गति व् प्रवाह अथपुनि नमन में संयुक्त ब्रह्म से , पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। और याचक दृष्टि के.<br>ज़राइस श्लोक स्तुति पाठ से , जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट है शुभ कीर्ति का विस्तार हो ,<br>अज्ञान, मद, तम, राग, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। अमर ब्रह्म के पुत्र भी सब सुनें इसका प्रसार हो॥ [ ५ ]<br><br>
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::अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राधिरुध्यते।<br>::सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र सञ्जायते मनः॥६॥<br>
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यदि विश्व रूप नदी का हैओंकार के जप ध्यान द्वारा, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ ब्रह्म रूपी अग्नि को ,<br>दुर्गम गति व् प्रवाह अथज्योतित प्रकाशित जब करें, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। तब विजित करते विध्न को.<br>ज़राविधिवत निरोध हो प्राण वायु का, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट है सोम रस आनंद हो ,<br>अज्ञान, मद, तम, रागउस स्थिति में सर्वदा मन शुद्ध , द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। शेष भी द्वंद हों॥ [ ]<br><br>
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यदि विश्व रूप नदी अति आदि कारण ब्रह्म ही, सृष्टा है सारी सृष्टि का है, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ ,<br>दुर्गम गति व् प्रवाह अथ, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। साधक करे आराधना तो पात्र हो शुभ दृष्टि का.<br>ज़रा, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट हैफ़िर पूर्व साँची कर्म न बाधक हों जड़ता शेष हो,<br>अज्ञान, मद, तम, राग, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। यदि सर्व आश्रय लीन ऋत साधक की दृढ़ता विशेष ॥ [ ]<br><br>
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::त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा सन्निवेश्य।<br>::ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयानकानि॥८॥<br>
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यदि विश्व रूप नदी का हैसाधक गला, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ सिर और छाती, तीनों को उन्नत रखे,<br>दुर्गम गति करे सीधा और स्थिर शरीर व् प्रवाह अथ, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। इन्द्रियों में सत रखे.<br>ज़रा, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, फ़िर इन्द्रियों को मन के दुःख जीवन विकट हैद्वारा हृदय में संचित करे,<br>अज्ञान, मद, तम, रागओंकार की नौका से दुष्कर , द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। भव प्रवाहों से तरे॥ [ ]<br><br>
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::प्राणान् प्रपीड्येह संयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत।<br>::दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः॥९॥<br>
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यदि विश्व रूप नदी का है, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ आहार और विहार भी साधक के समुचित योग्य हों ,<br>दुर्गम गति प्राणायाम से प्राण सूक्ष्म व् प्रवाह अथ, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। उच्छ्वास के योग्य हों.<br>ज़रातब दुष्ट घोडों से युक्त रथ, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट है ज्यों सारथी वश में करे,<br>अज्ञान, मद, तम, रागत्यों योग्य साधक इन्द्रियों को , द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। साध मन वश में करे॥ [ ]<br><br>
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::समे शुचौ शर्करावह्निवालिका विवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः।<br>::मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत्॥१०॥<br>
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यदि विश्व रूप नदी का हैहो ध्यान स्थल सुखद शीतल, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ शुद्ध,समतल, शांत भी.<br>दुर्गम गति व् प्रवाह अथअति, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। शुचि, मनोरम, सौम्य बहु, हों दृश्य सुखदायक सभी .<br>ज़रा, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट हैबहु अग्नि बालू और कंकड़,वायु शून्य गुहा न हो.<br>अज्ञान, मद, तमबहु लोग आश्रय, रागआगमन, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। व्यवधान और जहाँ न हो॥ [ १० ]<br><br>
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यदि विश्व रूप नदी का हैकोहरा, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ धुआं, रवि, वायु, अग्नि व् स्फटिक, मणि शशि कभी,<br>दुर्गम गति जुगनू व् प्रवाह अथ, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। बिजली के समानान्तर हो दृश्यों के सभी.<br>ज़रापुनरावृति योगी को हो, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट हैजो ब्रह्म योग में लीन हैं,<br>अज्ञानये सफलता के चिन्ह, मद, तम, राग, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। योगी ऋत दिशा तल्लीन है॥ [ ११ ]<br><br>
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::पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।<br>::न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्॥१२॥<br>
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यदि विश्व रूप नदी का हैआकाश, पृथ्वी, अग्नि, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ जल,वायु, ये पाँचों तत्व का.<br>दुर्गम गति व् प्रवाह अथ, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। साधक में जब उत्थान और अधिकार होता सत्व का.<br>ज़रा, जन्म, मृत्यु, गर्भउस योग अग्निमय देह में , कभी रोग, के दुःख जीवन विकट है,का न प्रवेश हो.<br>अज्ञानन ज़रा, मदन मृत्यु असमय , तम, राग, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। इच्छा शक्ति विशेष हो॥ [ १२ ]<br><br>
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यदि विश्व रूप नदी का हैआरोग्य जड़ता , तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ हीनता, हर्षित हृदय व् प्रफुल्लता,<br>दुर्गम गति व् प्रवाह अथविषयासक्ति की निवृति, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। वाणी में मृदु स्वर मृदुलता.<br>ज़रा, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट हैदेह में हो गंध सुरभित, वर्ण की उज्जवलता<br>अज्ञानअविकारी होवें सिद्ध , मद, तम, राग, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। जब हो सिद्धिओं की बहुलता॥ [ १३ ]<br><br>
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::यथैव बिंबं मृदयोपलिप्तं तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम्।<br>::तद्वाऽऽत्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः॥१४॥<br>
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यदि विश्व रूप नदी का है, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ रत्न आवृत मृत्तिका से तेजहीन लगे यथा,<br>दुर्गम गति व् प्रवाह अथ, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। धुलकर प्रकाशित हो यदि निज रूप में आता तथा.<br>ज़रावैसे ही यदि जीवात्मा को, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट हैआत्म तत्व प्रत्यक्ष हो,<br>अज्ञान, मद, तम, राग, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। कैवल्य पा हो कृतार्थ निश्चय ब्रह्म उसको प्रत्यक्ष हों॥ [ १४ ]<br><br>
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यदि विश्व रूप नदी का हैअथ आत्म तत्व के द्वारा योगी, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ जानते ब्रह्मत्व को,<br>दुर्गम गति व् प्रवाह अथनहीं इन्द्रियां हैं समर्थ किंचित, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। ब्रह्म के प्रत्यक्ष को.<br>ज़रा, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट हैयदि जान ले ध्रुव ऋत अजन्मा महिमामय परमात्मा,<br>अज्ञान, मद, तम, रागपुनि - पुनि जनम और मृत्यु भय से, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। मुक्त हो जीवात्मा॥ [ १५ ]<br><br>
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::एषो ह देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः।<br>::स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः॥१६॥<br>
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यदि विश्व रूप नदी का परब्रह्म परमेश्वर ही निश्चय, सब दिशाओं में व्याप्त है, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ ,<br>दुर्गम गति व् प्रवाह अथअति आदि कारण, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। आदि सृष्टि का और उसी में समाप्त है.<br>ज़रा, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट वही सर्वतोमुख हिरण्यगर्भा और अन्तर्यामी है,<br>अज्ञान, मद, तम, रागब्रह्माण्ड रूपी गर्भ स्थित, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। त्रिकाल दर्शी स्वामी है॥ [ १६ ]<br><br>
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यदि विश्व रूप नदी का परब्रह्म जो परमात्मा, अग्नि में है, तो स्रोत पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ जल में वही,<br>दुर्गम गति व् प्रवाह अथविश्वानि लोकों में प्रतिष्ठित, पुनि जन्म मृत्यु की उर्मियाँ। गरिमामय मंडित मही.<br>ज़राहै वनस्पति औषधि में भी, जन्म, मृत्यु, गर्भ, रोग, के दुःख जीवन विकट हैसत्ता उसी सम्राट की,<br>अज्ञानपुनि - पुनि नमन महिमा यही, मद, तम, राग, द्वेष ये क्लेश पञ्च विधि प्रकट हैं। उस विश्व रूप विराट की॥ [ १७ ]<br><br>
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