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::परब्रह्म हंस बहुत ऋतं शुचि बृहत इसके रूप हैं,<br>::देवानुप्रिय गृह में अतिथि, वसु अन्तरिक्ष अनूप हैं।<br>::प्रभु व्योम स्थित ऋत प्रतिष्ठित, अग्नि होता यज्ञ में,<br>::भू- द्यु , गिरि, नद, अन्न, औषधि सब समाये अज्ञ में॥ [ २ ]<br><br>
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::गमन शील हैं प्राण जीव के, यह कभी स्थिर नहीं,<br>::एक शरीर से दूसरे में, जन्म मृत्यु हो चिर यही।<br>::प्राण निकलें जब शरीर से, शेष क्या रहता कहो,<br>::जो शेष वह ही विशेष है, परब्रह्म अंश महिम अहो॥ [ ४ ]<br><br>
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::नचिकेता प्रिय तुम जीव ब्रह्म के तत्व को मुझसे सुनो,<br>::हूँ प्रतिज्ञ तुमसे गौतमी, श्रवणीय तत्व को तुम गुनो।<br>::जीवात्मा का होता क्या है , मर के है जाता कहाँ,<br>::परब्रह्म का है स्वरूप कैसा ? मर्म कहता हूँ यहाँ॥ [ ६ ]<br><br>
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::प्रभु परम अति है, विशुद्ध तत्व है, ब्रह्म भी अमृत वही,<br>::विश्वानी विश्व का वास उसमें, एक शाश्वत ऋत वही।<br>::अतिक्रमण हीन विधान उसके, कर्म फलदाता वही,<br>::जागे प्रलय काले वही, तुम जिसके जिज्ञासु मही॥ [ ८ ]<br><br>
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