"कहाँ होंगी जगन की अम्मा / अशोक कुमार पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये | सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये | ||
ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा ’शर्मिन्दा सा जेबें टटोलते | ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा ’शर्मिन्दा सा जेबें टटोलते | ||
− | अचानक | + | अचानक पहुँच जाता हूँ |
बचपन के उस छोटे से कस्बे में | बचपन के उस छोटे से कस्बे में | ||
जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं | जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं | ||
− | और | + | और माँ बाँस की रंगीन-सी डलिया में |
दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर | दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर | ||
− | + | जहाँ इंतज़ार में होती थीं | |
− | सुलगती | + | सुलगती हुई हांड़ियों के बीच जगन की अम्मा। |
तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका | तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका | ||
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी | प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी | ||
बस जगन की अम्मा थीं वह | बस जगन की अम्मा थीं वह | ||
− | + | हालाँकि पाँच बेटियां भी थीं उनकीं | |
− | एक पति भी रहा होगा | + | एक पति भी रहा होगा ज़रूर |
− | पर कभी | + | पर कभी ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई |
उसे जानने की | उसे जानने की | ||
हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू | हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू | ||
− | और उसमे खदकता भूजा था उनकी | + | और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान। |
− | + | हालाँकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर | |
नहीं था कहीं उसका विज्ञापन | नहीं था कहीं उसका विज्ञापन | ||
हमारी अपनी नंदन, पराग या चंपक में भी नहीं | हमारी अपनी नंदन, पराग या चंपक में भी नहीं |
13:11, 16 दिसम्बर 2008 का अवतरण
सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये
ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा ’शर्मिन्दा सा जेबें टटोलते
अचानक पहुँच जाता हूँ
बचपन के उस छोटे से कस्बे में
जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं
और माँ बाँस की रंगीन-सी डलिया में
दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर
जहाँ इंतज़ार में होती थीं
सुलगती हुई हांड़ियों के बीच जगन की अम्मा।
तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी
बस जगन की अम्मा थीं वह
हालाँकि पाँच बेटियां भी थीं उनकीं
एक पति भी रहा होगा ज़रूर
पर कभी ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई
उसे जानने की
हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू
और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान।
हालाँकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर
नहीं था कहीं उसका विज्ञापन
हमारी अपनी नंदन, पराग या चंपक में भी नहीं
अव्वल तो थी हीं नहीं इतनी होर्दिंगे
और जो थीं उन पर कहीं नहीं था इनका जिक्र
पर मां के दूध और रक्त से मिला था मानो इसका स्वाद
तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू
और तमाम दृ’यों में सबसे खूबसूरत था वह दृश्य .
मुट्ठियाँ भर-भर कर फांकते हुए इसे
हमने खेले बचपन के तमाम खेल
उंघती आँखांे से हल किये गणित के प्रमेय
रि’तेदारों के घर रस के साथ यही मिला अक्सर
एक डलिया में बांटकर खाते बने हमारे पहले दोस्त
फ्राक में छुपा हमारी पहली प्रेमिकाओं ने
यही दिया उपहार की तरह
यही खाते-खाते पहले पहल पढ़े
डिब्बाबंद खाने और शीतल पेयों के विज्ञापन!
और फिर जब सपने तलाशते पहुँचे
महानगरों की अनजान गलियों के उदास कमरों में
आतीं रहीं अक्सर जगन की अम्मा
मां के साथ पिता के थके हुए कंधो पर
पर धीरे-धीरे घटने लगा उस खुशबू का सम्मोहन
और फिर खो गया समय की धुंध में तमाम दूसरी चीजों की तरह.
बरसों हुए अब तो उस गली से गुजरे
पता ही नहीं चला कब बदल गयी
बांस की डलिया प्लास्टिक की प्लेटों में
और रस भूजा - चाय नमकीन में!
अब कहाँ होंगी जगन की अम्मा?
बुझे चूल्हे की कब्र पर तो कबके बन गये होंगे मकान
और उस कस्बे में अब तक नहीं खुली चिप्स की फैक्ट्री
और खुल भी जाती तो कहाँ होती जगह जगन की अम्मा के लिए?
क्या कर रहे होंगे आजकल
मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भर देने वाले हाथ?
आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले
होती हैं अनेक भयावह संभावनायें....
जेबें टटोलते मेरे ’शर्मिन्दा हाथांे को देखते हुए गौर से
दुकानदार ने बिटिया को पकड़ा दिये है- अंकल चिप्स!