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<Poem>
'''राजनीति जब कर्म नहीं, कर्मकांड हो तो क्यों न उसके 'तांत्रिक' भी हों! भूमंडलीकृत कर्मकांड के ये 'जन-तांत्रिक' हैं, जो अपने-अपने अनुष्ठानों को जनतंत्र के नाम पर चला कर, जनता को विकास के आईने दिखाना चाहते हैं। उन्हें पता नहीं, पता है कि नहीं कि यह विकास 'हां'-'नहीं' के द्वंद्व में फँस चुका है। आईना भी अब इतना जड़ नहीं रहा कि उसे यह प्रश्न न कुरेदे कि सदियों से चला आ रहा यह जनविश्वास कि 'आईना झूठ नहीं बोलता' क्या सिर्फ़ अंधविश्वास बन कर रह जायेगा? तो, क्या आईना-द्रोह होगा? होगा- शायद या निश्चित! तीन उप-शीर्षकों में यह लम्बी कविता, इसी 'शायद' और 'निश्चित' के द्वंद्व की कविता है।'''
'''।। हाँ-नहीं ॥नहीं।।
सबके अपने-अपने 'हाँ-हाँ'
न वह राजा था न जोगी
क्योंकि उसके
दसो दसों चक्र थे न दसो दसों शंख!
मगर ज्योतिषियों की निगाह
उस पर पड़ गयीगईहालांकि हालाँकि वह लगातार चीखता चीख़ता रहा
कि उसे किसी भी ज्योतिषी पर
जरा ज़रा भी भरोसा नहीं है!
ज्योतिषी ज्योतिषी था/ जानता था
देश के इतिहास में
विदेशी शासक किस -किस के अक्सों को
आगे करके आया था
देश के भविष्य में ज्योतिषी
आईना आगे करके/आ गया
अपनी लम्बाई से बित्ता -भर बडे+बडे़ / आईने की
आड़ में ज्योतिषी था
ज्योतिषी की आड़ में भविष्य...
भविष्य की आड़ में वर्तमान था...
त्रिाकालदर्शी त्रिकालदर्शी ज्योतिषी को इस क्रम पर
पूरा इत्मीनान था।
उसने ताड़ लिया था/कि जनतंत्रा जनतंत्र में/आता हुआ समाजवाद/भागते हुए पीछे मुड़ -मुड़ कर क्यों देखता है आखिर आख़िर
हर बार !
आईने की आड़ में ज्योतिषी था।
उसकोᄉ उसको- जिसके न दसो दसों चक्र थे न दसो शंखᄉदसों शंख-ज्योतिषी नहीं दिखा, आईना दिखा....
इतना बड़ा आईना !
उसने पहली बार देखा था
वह उसे देखता रह गया।
कुछ गड़ने लगा उसके/ क्या गड़ रहा है यह!ᄉउसने -उसने सीने पे टटोला।
एकाएक समझ में आयाᄉ आया- जो चीज
गड़ रही है वो उसके सीने में नहीं, उसके घर के
किसी आले में होगीᄉकोरहोगी- कोर, उस टूटे हुए
छोटे से
शीशे की
जो उसकी पत्नी के हाथों में होता है/ जब वह
अपनी मांग में सेंदुर दे रही होती है
या माथे पे लगा रही होती है
टिकुली!
और यह/ इतना बड़ा आईना !÷देखो 'देखो तो, तुम कितने महान हो'ᄉपीछे -पीछे से किसी की आवाजआवाज़ / उसने सुनी।मुड़ कर पीछे देखने की जरूरत ज़रूरत नहीं थी, आवाज आवाज़ का चेहरा आईने में/ उसके अपने चेहरे के बिल्कुल नजदीक नज़दीक था। सच तो यह है/ कि आईने के सामने होकर भी
उसकी निगाह अब तक
अपने चेहरे और अपनी शक्ल पर गयी गई ही न थी
अब तक वह केवल
घर के आने वाले शीशे और सामने वाले आईने की
तुलना करने में ही भूला था/और
वह दंग था
कि यह आईना कितना बड़ा है!
और अब/वह और अधिक दंग थाकि वह महान कैसे है?इतने बड़े आईने में/उसका अपना चेहरा आवाज आवाज़ के चेहरे के मुकाबले तो और भीᄉभी-
छोटा
दिखता है।
''"तुम सचमुच महान हो!''ᄉ आवाज " -आवाज़ का चेहरा
आईने में खिल उठा।
''"पर मेरा चेहरा तो इत्ता छोटा दिखता है!''ᄉवह " -वह
आईने में अपना प्रतिबिम्ब देखते हुए
बुदबुदाया।
आवाज आवाज़ का चेहरा आईने में तड़क उठाᄉ''नावाकिफ उठा- "नावाकिफ़ हो तुम
अपने देश की गौरवपूर्ण संस्कृति और दर्शन से;
जो दिखता है वही सही नहीं होता!''"
''"और जो सही होता है वो दिखता क्यों नहीं?''ᄉउसने " -उसने आईने में आवाज आवाज़ के चेहरे से आंख मिलायी। आँख मिलाई। जवाब मिलाᄉ ''मिला- "इसलिए कि तुम देशप्रेम देश-प्रेम में अंधे हो गये गए हो! तुम्हें देश दिखता है, अपना चेहरा नहीं दिखता।''"
अब उसने अपने चेहरे पर गौर किया
आईने में
और आवाज आवाज़ के चेहरे से अपने चेहरे का
मिलान भी।
आवाज आवाज़ का चेहरा अपने चेहरे से बड़ा जरूर ज़रूर दिखा उसे लेकिन/आवाज आवाज़ के चेहरे वाली आंखें आँखें उसकी अपनी आंखों आँखों से बहुत छोटी थीं/और
जब वह देख रहा था उन्हें,
वो और भी छोटी होती जा रही थीं।
देखते ही देखते
आवाज आवाज़ का चेहरा गायब हो गयाअब सिर्फ सिर्फ़
उसकी अपनी शक्ल
आईने में थी
उसने
अनेक कोणों से आईने में खुद ख़ुद को देखा
फिर उसी देखने के सिलसिले में
आईने को
उसने दोनों हाथ बढ़ा कर थाम लिया।
अंगूठा छोड़/बाकी बाक़ी सब उंगलियां उंगलियाँ आईने की आड़ में खडे+ ज्योतिषी को दिखने लगीं/ज्योतिषी ने
मन ही मन
उ+पर ऊपर वाले का नाम लिया/और धीरे सेअपने हाथों को/पीछे हटाया।
आईने को अब/ज्योतिषी के लिए/ज्योतिषी के
हाथों की
जरूरत ज़रूरत नहीं थी।
साफ साफसाफ़-साफ़/अब दो पक्ष थे
आईने के सामने था जन
आईने को पकड़े
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