भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"गर है तो क्यों तेरी बातों में बनावट है/ विनय प्रजापति 'नज़र'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: '''लेखन वर्ष: २००३''' <br/><br/> गर है तो क्यों तेरी बातों में बनावट है<br/> किस...)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=विनय प्रजापति 'नज़र'
 +
}}
 
'''लेखन वर्ष: २००३''' <br/><br/>
 
'''लेखन वर्ष: २००३''' <br/><br/>
  

15:19, 28 दिसम्बर 2008 का अवतरण

लेखन वर्ष: २००३

गर है तो क्यों तेरी बातों में बनावट है
किसलिए यह मुझसे झूठी लगावट है

ग़ैर की महफ़िल में तेरे अंदाज़े-ख़म
मुआ जाए उदू सरापा कैसी सजावट है

सद-अफ़सोस नौ जवाँ हैं मेरे ख़ातिर में
तेरे दिल में जज़्बों की कैसी मिलावट है

सीमाब है लहू में दौड़ता सच्चा इश्क़
फ़िराक़ से धड़कनों में मेरी गिरावट है

फिर वही शाम है और है आँखों में नमी
नमी क्या है यह तो लहू की तरावट है

पढ़ते हैं महफ़िल में किसी ग़ैर के शे’र
बताते हैं कि पुरज़े पे मेरी लिखावट है

नज़र नाचार है दिल की वादा ख़िलाफ़ी से
वरगना इख़लास में कैसी रुकावट है

एक जुनूँ को दबाके सुकूँ पाया है तूने
बे-फ़िजूल इन सब बातों की दिखावट है

वाइज़ की मानी इसलिए यह हश्र हुआ
हरे हैं घाव शायद काई की जमावट है

ऐन वक़्त अपनी बात से मुकर गये
क्यों शर्मिन्दगी से आँखों की झुकावट है