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"नहीं मिटा सकता तो बढ़ा दे दर्द/ विनय प्रजापति 'नज़र'" के अवतरणों में अंतर
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लेखन वर्ष: २००३
नहीं मिटा सकता तो बढ़ा दे दर्द
क्यों न हो यार से तज़किराए-दर्द
चुप हूँ तो जलता है मेरा कलेजा
बोलूँ तो लफ़्ज़ों में टपकता है दर्द
आग जो है सो है दिल में अब तक
कहीं कोई गुलशन न जला दे दर्द
हर आस को टोहकर देखा मैंने
जब भी छुआ है बहुत होता है दर्द
नहीं आसाँ डूब के उबरना उसमें
इश्क़ जिसको भी कहता है दर्द
मौत मिले अगर तेरे हाथों मिले
रोज़ झूठे ख़ाब मुझको दिखाये दर्द
रोज़े-अजल हो गर तेरा दीदार
चाहता हूँ मुझको आज मिटाये दर्द
मैं तूफ़ानो-भँवर का मुसाफ़िर हूँ
जाने कितने फ़ितने उठाये दर्द
‘नज़र’ को इक दफ़ा देख जाओ तुम
कि वह तुमको अपने गिनाये दर्द