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नई औरत / पंखुरी सिन्हा
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14:38, 28 दिसम्बर 2008
<Poem>
वह क्षण भर भी नहीं
उसका एक बारीक़-
साटुकड़ा
सा टुकड़ा
था बस,
जब लगाम मेरे हाथ से छूट गई थी,
और सारी सड़क की भीड़ के साथ-साथ
अनिल जनविजय
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