भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उतना कवि तो कोई भी नहीं / सुदीप बनर्जी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: उतना कवि तो कोई भी नहीं जितनी व्‍यापक दुनिया जितने अंतर्मन के प्र...)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=सुदीप बनर्जी
 +
}}
 +
[[category: ग़ज़ल]]
 +
 +
<poem>
 +
 
उतना कवि तो कोई भी नहीं
 
उतना कवि तो कोई भी नहीं
 
जितनी व्‍यापक दुनिया
 
जितनी व्‍यापक दुनिया

13:56, 31 दिसम्बर 2008 का अवतरण


उतना कवि तो कोई भी नहीं
जितनी व्‍यापक दुनिया
जितने अंतर्मन के प्रसंग

आहत करती शब्‍दावलियां फिर भी
उंगलियों को दुखा कर शरीक हो जातीं
दुर्दांत भाषा के लिजलिजे शोर में

अंग प्रत्‍यंग अब शोक में डूबे
चुपचाप अपने हाड़ मांस रूधिर में आसीन
उंगलियां पर मानती नहीं अपनी औकात

उतना कवि तो बिल्‍कुल ही नहीं
कि उठ खड़ा होता पूरे शरीर से
नापता तीन कदमों से धरती और आसमान

सिर पर पैर रखता समय के