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"घर-गाँव की लड़कियों की तरह / नवल शुक्ल" के अवतरणों में अंतर

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साफ़ करती है घर, बर्तन, कपड़े
 
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घर-गाँव की लड़कियों कि तरह।
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15:45, 3 जनवरी 2009 का अवतरण


शहर के इस मुहल्ले में

पहली बार आया

और देखा लड़की को।


उसकी आँखों में, चेहरे पर

नहीं देखा अपरिचय

तो बार-बार देखा

समय से हटकर

गली के मोड़ से

खिड़कियों से

आँखों की कोर से।


वह सुबह उठती है

साफ़ करती है घर, बर्तन, कपड़े

सड़कों, चौराहों को पार कर

प्रशिक्षण के लिए जाती है कहीं

सुबह-शाम गलियों में घूमती है

ठहर-ठहर कर

खिड़कियों-दरवाज़ों पर खड़ी रहती है

मुझे देख मुस्कुराती है

घर-गाँव की लड़कियों की तरह।