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हम कहाँ उड़ रहे... | हम कहाँ उड़ रहे... |
02:47, 7 सितम्बर 2006 का अवतरण
कवि: जयप्रकाश मानस
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कभी मीठा-खारा पानी
लोहा पत्थर कभी
कुछ-न-कुछ होता है प्राप्य
जब ज़मीन खोदते हैं आप या हम
पितरों की अनझुकी रीढ़ के अवशेष
माखुर की डिबिया
चोंगी सुपचाने वाली चकमक
मूर्ति में देवता
देवता के हाथों में त्रिशूल खड्ग बाण
नाचा के मुखौटे
कभी भी मिल सकते हैं
यह सब पता है हम सभीको
पता नहीं है
हम कहाँ उड़ रहे...