"जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर
छो |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
जीवन के प्रखर समर्थक-से जब प्रश्न चिन्ह | जीवन के प्रखर समर्थक-से जब प्रश्न चिन्ह | ||
− | + | :बौखला उठे थे दुर्निवार, | |
तब एक समंदर के भीतर | तब एक समंदर के भीतर | ||
− | + | :रवि की उद्भासित छवियों का | |
− | + | ::गहरा निखार | |
स्वर्णिम लहरों सा झल्लाता | स्वर्णिम लहरों सा झल्लाता | ||
− | + | :झलमला उठा; | |
मानो भीतर के सौ-सौ अंगारी उत्तर | मानो भीतर के सौ-सौ अंगारी उत्तर | ||
− | + | :सब एक साथ | |
− | + | ::बौखला उठे | |
− | + | :::तमतमा उठे !! | |
संघर्ष विचारों का लोहू | संघर्ष विचारों का लोहू | ||
− | + | :पीड़ित विवेक की शिरा-शिरा | |
− | + | ::में उठा गिरा, | |
मस्तिष्क तंतुओं में प्रदीप्त | मस्तिष्क तंतुओं में प्रदीप्त | ||
− | + | :वेदना यथार्थों की जागी !! | |
मेरे सुख-दुख ने अकस्मात् भावुकतावश | मेरे सुख-दुख ने अकस्मात् भावुकतावश | ||
− | + | :सुख-दुख के चरणों की | |
− | + | ::मन ही मन | |
− | + | :::यों की 'पालागी' — | |
कण्ठ में ज्ञान संवेदन के, | कण्ठ में ज्ञान संवेदन के, | ||
पंक्ति 26: | पंक्ति 26: | ||
जिस में जन-जन के घर-आंगन | जिस में जन-जन के घर-आंगन | ||
− | + | :का सूरज भासमान छाया | |
झुरमुर-झुरमुर वह नीम हँसा, | झुरमुर-झुरमुर वह नीम हँसा, | ||
− | + | :चिड़िया डोली, | |
फर-फर आंचल तुमको निहार | फर-फर आंचल तुमको निहार | ||
पंक्ति 40: | पंक्ति 40: | ||
जन-संघर्षों की राहों पर | जन-संघर्षों की राहों पर | ||
− | + | :ज्वालाओं से | |
माँओं का बहनों का सुहाग सिन्दूर हँसा बरसा-बरसा । | माँओं का बहनों का सुहाग सिन्दूर हँसा बरसा-बरसा । | ||
इन भारतीय गृहिणी-निर्झरिणी-नदियों के | इन भारतीय गृहिणी-निर्झरिणी-नदियों के | ||
− | + | :घर-घर के भूखे प्राण हँसे । | |
दिल के आंसू के फव्वारे | दिल के आंसू के फव्वारे | ||
− | + | :लेकिन यह मेरे छन्द | |
बावरे बुरी तरह यों अकुलाकर, | बावरे बुरी तरह यों अकुलाकर, | ||
बूढ़े पितृश्री के चरणों में लोट-पोटकर, | बूढ़े पितृश्री के चरणों में लोट-पोटकर, | ||
− | + | :ऐसी पावन धूल हुए — | |
बहना के हिय की तुलसी पर | बहना के हिय की तुलसी पर | ||
घन छाया कर | घन छाया कर | ||
− | + | :मंजरी हुए, | |
भाई के दिल में फूल हुए । | भाई के दिल में फूल हुए । | ||
पंक्ति 68: | पंक्ति 68: | ||
अम्बर में चमक रही बहन-बिजली ने भी | अम्बर में चमक रही बहन-बिजली ने भी | ||
− | + | :थी ताकत हिय में सरसायी । | |
घर-घर के सजल अंधेरे से | घर-घर के सजल अंधेरे से | ||
पंक्ति 76: | पंक्ति 76: | ||
जन-संघर्षों की राहों पर | जन-संघर्षों की राहों पर | ||
− | + | :गम्भीर घटाओं ने | |
− | + | ::युग जीवन सरसाया । | |
आंसू से भरा हुआ चुम्बन मुझपर बरसाया । | आंसू से भरा हुआ चुम्बन मुझपर बरसाया । | ||
पंक्ति 85: | पंक्ति 85: | ||
नव-वधुका बन | नव-वधुका बन | ||
− | + | :यह बुद्धिमती | |
ऐसी तेरे घर आयी है । | ऐसी तेरे घर आयी है । | ||
रे, स्वयं अगरबत्ती से जल, | रे, स्वयं अगरबत्ती से जल, | ||
− | + | :सुगंध फैला | |
− | + | ::जिन लोगों ने | |
अपने अंतर में घिरे हुए | अपने अंतर में घिरे हुए | ||
गहरी ममता के अगुरू-धूम | गहरी ममता के अगुरू-धूम | ||
− | + | ::के बादल सी | |
मुझको अथाह मस्ती प्रदान की | मुझको अथाह मस्ती प्रदान की | ||
− | + | :वह हुलसी, वह अकुलायी | |
इस हृदय-दान की वेला में मेरे भीतर । | इस हृदय-दान की वेला में मेरे भीतर । | ||
जिनके स्वभाव के गंगाजल ने, | जिनके स्वभाव के गंगाजल ने, | ||
− | + | :युगों-युगों को तारा है, | |
जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है, | जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है, | ||
पंक्ति 107: | पंक्ति 107: | ||
जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया | जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया | ||
− | + | ::पार लगायी है, | |
जिनके कि पूत-पावन चरणों में | जिनके कि पूत-पावन चरणों में | ||
− | + | ::हुलसे मन — | |
− | + | ::से किये निछावर जा सकते | |
− | + | :::सौ-सौ जीवन, | |
उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर | उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर | ||
पंक्ति 117: | पंक्ति 117: | ||
उनकी बाहों को अपने उर पर | उनकी बाहों को अपने उर पर | ||
− | + | :धारण कर वरमाला-सी | |
उनकी हिम्मत, उनका धीरज, | उनकी हिम्मत, उनका धीरज, | ||
पंक्ति 137: | पंक्ति 137: | ||
मँडराता है मेरा जी चारों ओर सदा | मँडराता है मेरा जी चारों ओर सदा | ||
− | + | ::उनके ही तो । | |
यादें उनकी | यादें उनकी | ||
पंक्ति 157: | पंक्ति 157: | ||
मानो कि गीत के | मानो कि गीत के | ||
− | + | :किसी विलम्बित सुर में — | |
उनके घर आने की | उनके घर आने की | ||
− | + | :बेर-अबेर खिली, | |
क्रान्ति की मुस्कराती आँखों — | क्रान्ति की मुस्कराती आँखों — | ||
पंक्ति 175: | पंक्ति 175: | ||
दुबली चम्पा | दुबली चम्पा | ||
− | + | :जन संघर्षों में | |
− | + | ::गदरायी, | |
खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे | खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे | ||
जीवन संघर्षों में घुमड़े | जीवन संघर्षों में घुमड़े | ||
− | + | ::उमड़े चक्की के गीतों में | |
कल्याणमयी करुणाओं के | कल्याणमयी करुणाओं के | ||
पंक्ति 190: | पंक्ति 190: | ||
प्रातः कालीन हवाओं में । | प्रातः कालीन हवाओं में । | ||
− | + | ::सूरज का लाल-लाल चेहरा | |
डोला धरती की बाहों में, | डोला धरती की बाहों में, | ||
पंक्ति 198: | पंक्ति 198: | ||
उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में | उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में | ||
− | + | :यों दावाग्नि लगी | |
मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी | मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी | ||
पंक्ति 204: | पंक्ति 204: | ||
यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की | यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की | ||
− | + | :::रे नौजवान, | |
इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा | इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा | ||
भौहों पर मेघों-जैसा | भौहों पर मेघों-जैसा | ||
− | + | :विद्युत भार | |
− | + | :विचारों का लेकर | |
पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए | पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए | ||
पंक्ति 221: | पंक्ति 221: | ||
तल में | तल में | ||
− | + | :ज्यों रत्न-द्वीप जलते | |
त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में | त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में | ||
पंक्ति 229: | पंक्ति 229: | ||
मानो जीवन सरिता | मानो जीवन सरिता | ||
− | + | :जलते कूलोंवाली, | |
इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों | इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों | ||
पंक्ति 245: | पंक्ति 245: | ||
संघर्षों के उत्साहों में | संघर्षों के उत्साहों में | ||
− | + | :जाने क्या-क्या सहते रहते । | |
लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला; | लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला; | ||
जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी | जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी | ||
− | + | :धरती की प्रस्तर-माला | |
जल-भरे पारदर्शी उर में !! | जल-भरे पारदर्शी उर में !! | ||
पंक्ति 256: | पंक्ति 256: | ||
जन-जन के पुत्रों के हिय में | जन-जन के पुत्रों के हिय में | ||
− | + | :मचले हिन्दुस्तानी झरने | |
− | + | ::मानव युग के । | |
पंक्ति 263: | पंक्ति 263: | ||
लहरों में लहराती धरती | लहरों में लहराती धरती | ||
− | + | :की बाहों ने | |
बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया, | बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया, | ||
पंक्ति 273: | पंक्ति 273: | ||
ऐसा संघर्षी वर्तमान — | ऐसा संघर्षी वर्तमान — | ||
− | + | :तुम भी तो हो, | |
मानव-भविष्य का आसमान — | मानव-भविष्य का आसमान — | ||
− | + | :तुममें भी है, | |
मानव-दिगन्त के कूलों पर | मानव-दिगन्त के कूलों पर | ||
जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें | जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें | ||
− | + | :वे अपनी लाल बुनावट में | |
− | + | :जिन कुसुमों की आकृति बुनने | |
− | + | :के लिए विकल हो उठती हैं — | |
उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो, | उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो, | ||
पंक्ति 304: | पंक्ति 304: | ||
जिन किरनों का ताना-बाना | जिन किरनों का ताना-बाना | ||
− | + | :उस रश्मि-रेशमी | |
− | + | :क्षितिज-क्षोभ पर अंकित | |
नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल — | नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल — | ||
पंक्ति 313: | पंक्ति 313: | ||
जन-जन के संघर्षों में विकसित | जन-जन के संघर्षों में विकसित | ||
− | + | :परिणत होते नूतन मन का । | |
− | + | ::वह अन्तस्तल . . . . . . | |
− | क्रमशः... | + | क्रमशः... |
08:12, 6 जनवरी 2009 का अवतरण
जीवन के प्रखर समर्थक-से जब प्रश्न चिन्ह
- बौखला उठे थे दुर्निवार,
तब एक समंदर के भीतर
- रवि की उद्भासित छवियों का
- गहरा निखार
स्वर्णिम लहरों सा झल्लाता
- झलमला उठा;
मानो भीतर के सौ-सौ अंगारी उत्तर
- सब एक साथ
- बौखला उठे
- तमतमा उठे !!
- बौखला उठे
संघर्ष विचारों का लोहू
- पीड़ित विवेक की शिरा-शिरा
- में उठा गिरा,
मस्तिष्क तंतुओं में प्रदीप्त
- वेदना यथार्थों की जागी !!
मेरे सुख-दुख ने अकस्मात् भावुकतावश
- सुख-दुख के चरणों की
- मन ही मन
- यों की 'पालागी' —
- मन ही मन
कण्ठ में ज्ञान संवेदन के,
आंसू का कांटा फंसा और
मन में यह आसमान छाया,
जिस में जन-जन के घर-आंगन
- का सूरज भासमान छाया
झुरमुर-झुरमुर वह नीम हँसा,
- चिड़िया डोली,
फर-फर आंचल तुमको निहार
मानो कि मातृ-भाषा बोली —
जिनसे गूंजा घर-आंगन
खनके मानों बहुओं की चूड़ी के कंगन ।
मैं जिस दुनिया में आज बसा,
जन-संघर्षों की राहों पर
- ज्वालाओं से
माँओं का बहनों का सुहाग सिन्दूर हँसा बरसा-बरसा ।
इन भारतीय गृहिणी-निर्झरिणी-नदियों के
- घर-घर के भूखे प्राण हँसे ।
दिल के आंसू के फव्वारे
- लेकिन यह मेरे छन्द
बावरे बुरी तरह यों अकुलाकर,
बूढ़े पितृश्री के चरणों में लोट-पोटकर,
- ऐसी पावन धूल हुए —
बहना के हिय की तुलसी पर
घन छाया कर
- मंजरी हुए,
भाई के दिल में फूल हुए ।
अपने समुंदरों के विभोर
मस्ती के शब्दों में गम्भीर
तब मेरा हिन्दुस्तान हँसा ।
जन-संघर्षों की राहों पर
आंगन के नीमों ने मंजरियाँ बरसायीं ।
अम्बर में चमक रही बहन-बिजली ने भी
- थी ताकत हिय में सरसायी ।
घर-घर के सजल अंधेरे से
मेघों ने कुछ उपदेश लिए,
जीवन की नसीहतें पायीं ।
जन-संघर्षों की राहों पर
- गम्भीर घटाओं ने
- युग जीवन सरसाया ।
आंसू से भरा हुआ चुम्बन मुझपर बरसाया ।
ज़िंदगी नशा बन घुमड़ी है
ज़िंगगी नशे सी छायी है
नव-वधुका बन
- यह बुद्धिमती
ऐसी तेरे घर आयी है ।
रे, स्वयं अगरबत्ती से जल,
- सुगंध फैला
- जिन लोगों ने
अपने अंतर में घिरे हुए
गहरी ममता के अगुरू-धूम
- के बादल सी
मुझको अथाह मस्ती प्रदान की
- वह हुलसी, वह अकुलायी
इस हृदय-दान की वेला में मेरे भीतर ।
जिनके स्वभाव के गंगाजल ने,
- युगों-युगों को तारा है,
जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है,
कल्याण व्यथाओं मे घुलकर
जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया
- पार लगायी है,
जिनके कि पूत-पावन चरणों में
- हुलसे मन —
- से किये निछावर जा सकते
- सौ-सौ जीवन,
उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर
मेरे भीतर, मेरे भीतर ।
उनकी बाहों को अपने उर पर
- धारण कर वरमाला-सी
उनकी हिम्मत, उनका धीरज,
उनकी ताकत
पायी मैंने अपने भीतर ।
कल्याणमयी करुणाओं के
वे सौ-सौ जीवन-चित्र लिखे
मेरे हिय में जाने किसने, जाने कैस
उनकी उस सहजोत्सर्गमयी
आत्मा के कोमल पंख फँसे
मेरे हिय में,
मँडराता है मेरा जी चारों ओर सदा
- उनके ही तो ।
यादें उनकी
कैसी-कैसी बातें लेकर,
जीवन के जाने कितने ही रुधिराक्त प्राण
दुःखान्त साँझ
दुर्दान्त भव्य रातें लेकर
यादें उनकी
मेरे मन में
ऐसी घुमड़ी
ऐसी घुमड़ी
मानो कि गीत के
- किसी विलम्बित सुर में —
उनके घर आने की
- बेर-अबेर खिली,
क्रान्ति की मुस्कराती आँखों —
पर, लहराती अलकों में बिंध,
आंगन की लाल कन्हेर खिली ।
भूखे चूल्हे के भोले अंगारों में रम,
जनपथ पर मरे शहीदों के
अन्तिम शब्दों बिलम-बिलम,
लेखक की दुर्दम कलम चली ।
दुबली चम्पा
- जन संघर्षों में
- गदरायी,
खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे
जीवन संघर्षों में घुमड़े
- उमड़े चक्की के गीतों में
कल्याणमयी करुणाओं के
हिन्दुस्तानी सपने निखरे —
जिस सुर को सुन
कूएँ की सजल मुँडेर हिली
प्रातः कालीन हवाओं में ।
- सूरज का लाल-लाल चेहरा
डोला धरती की बाहों में,
आसक्ति भरा रवि का मुख वह ।
उसकी मेधाओं की ज्वालाएँ ऐसी फैलीं —
उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में
- यों दावाग्नि लगी
मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी
सिर जलता है, कन्धे जलते ।
यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की
- रे नौजवान,
इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा
भौहों पर मेघों-जैसा
- विद्युत भार
- विचारों का लेकर
पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए
वे दिशा-काल वन वातावरण-पटल जैसे
चलते जन-जन के साथ
वे हैं आगे वे हैं पीछे ।
अगजाजी खोहों और खदानों के
तल में
- ज्यों रत्न-द्वीप जलते
त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में
जीवन के सत्य-दीप पलते !!
दावाग्नि-लगे, जंगल के बीचों-बीच बहे
मानो जीवन सरिता
- जलते कूलोंवाली,
इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों
बहती है तरुणों आत्मा की प्रतिभाशाली
अपने भीतर प्रतिबिम्बित जीवन-चित्रावलि,
लेकर ज्यों बहते रहते हैं,
ये भारतीय नूतन झरने
अंगारों की धाराओं से
विक्षोभों के उद्वेगों में
संघर्षों के उत्साहों में
- जाने क्या-क्या सहते रहते ।
लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला;
जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी
- धरती की प्रस्तर-माला
जल-भरे पारदर्शी उर में !!
सम्पूरन मानव की पीड़ित छवियाँ लेकर
जन-जन के पुत्रों के हिय में
- मचले हिन्दुस्तानी झरने
- मानव युग के ।
इन झरनों की बलखाती धारा के जल में —
लहरों में लहराती धरती
- की बाहों ने
बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया,
मानव-भविष्य का विजयाकांक्षी आसमान
इन झरनों में
अपने संघर्षी वर्तमान में घूम लिया !!
ऐसा संघर्षी वर्तमान —
- तुम भी तो हो,
मानव-भविष्य का आसमान —
- तुममें भी है,
मानव-दिगन्त के कूलों पर
जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें
- वे अपनी लाल बुनावट में
- जिन कुसुमों की आकृति बुनने
- के लिए विकल हो उठती हैं —
उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो,
वह तुम ही हो.
इस रिश्ते से, इस नाते से
यह भारतीय आकाश और पृथ्वीतल,
बंजर ज़मीन के खण्डहर के बरगद-पीपल
ये गलियाँ, राहें घर-मंजिल,
पत्थर, जंगल
पहचानते रहे नित तुमको जिन आँखों से
उन आँखों से मैंने भी तुमको पहचाना,
मानव-दिगन्त के कूलों पर
जिन किरनों का ताना-बाना
- उस रश्मि-रेशमी
- क्षितिज-क्षोभ पर अंकित
नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल —
आदर्श बिम्ब मानव युग के ।
उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा —
जन-जन के संघर्षों में विकसित
- परिणत होते नूतन मन का ।
- वह अन्तस्तल . . . . . .
क्रमशः...