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− | रहता हमारै गुरु बोलेये, हम रहता का चेला । | + | रहता हमारै गुरु बोलेये, हम रहता का चेला । |
− | मन मानै तौ संगि फिरै, निंहतर फिरै अकेला ।। | + | |
− | अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी तामैं झिलिमिलि जोति उजाली । | + | मन मानै तौ संगि फिरै, निंहतर फिरै अकेला ।। |
− | जहाँ जोग तहाँ रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुर करनां । | + | |
− | तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरनां ।। | + | अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी तामैं झिलिमिलि जोति उजाली । |
− | काल न मिट्या जंजाल न छुट्या, तप करि हुवा न सूरा । | + | |
− | कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पूरा ।। | + | जहाँ जोग तहाँ रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुर करनां । |
− | सप्त धात्त का काया पींजरा, ता महिं जुगति बिन सूवा । | + | |
− | सतगुर मिलै तो ऊबरै बाबू, नहीं तौ परलै हूवा । | + | तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरनां ।। |
− | कंद्रप रूप काया का मंडण, अँबिरथा कांई उलींचौ । | + | |
+ | काल न मिट्या जंजाल न छुट्या, तप करि हुवा न सूरा । | ||
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+ | कंद्रप रूप काया का मंडण, अँबिरथा कांई उलींचौ । | ||
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गोरष कहैं सुणौं रे भौंदू, अंरड अँमीं कत सींचौ । | गोरष कहैं सुणौं रे भौंदू, अंरड अँमीं कत सींचौ । |
00:34, 13 अगस्त 2006 का अवतरण
कवि: गोरखनाथ
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रहता हमारै गुरु बोलेये, हम रहता का चेला ।
मन मानै तौ संगि फिरै, निंहतर फिरै अकेला ।।
अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी तामैं झिलिमिलि जोति उजाली ।
जहाँ जोग तहाँ रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुर करनां ।
तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरनां ।।
काल न मिट्या जंजाल न छुट्या, तप करि हुवा न सूरा ।
कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पूरा ।।
सप्त धात्त का काया पींजरा, ता महिं जुगति बिन सूवा ।
सतगुर मिलै तो ऊबरै बाबू, नहीं तौ परलै हूवा ।
कंद्रप रूप काया का मंडण, अँबिरथा कांई उलींचौ ।
गोरष कहैं सुणौं रे भौंदू, अंरड अँमीं कत सींचौ ।