"कूट संदेश / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर
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हवा चलती है | हवा चलती है | ||
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तो लगता है | तो लगता है | ||
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हम ज़िंन्दा हैं | हम ज़िंन्दा हैं | ||
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द्वार थपथपाती है | द्वार थपथपाती है | ||
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तो लगता है | तो लगता है | ||
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वह हमें बुला रही है | वह हमें बुला रही है | ||
बादल तैरते-तैरते | बादल तैरते-तैरते | ||
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शक्लें बनाते हैं | शक्लें बनाते हैं | ||
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तो लगता है | तो लगता है | ||
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वे हमें खुश कर रहे हैं | वे हमें खुश कर रहे हैं | ||
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(हाथी, घोड़े, ऊँट | (हाथी, घोड़े, ऊँट | ||
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बच्चों के गड्डमड्ड चित्र | बच्चों के गड्डमड्ड चित्र | ||
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लगते जानदार) | लगते जानदार) | ||
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पेड़ सिर हिलाते हैं | पेड़ सिर हिलाते हैं | ||
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तो लगता है | तो लगता है | ||
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वे भर रहे हैं | वे भर रहे हैं | ||
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हमारी बात की हामी | हमारी बात की हामी | ||
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जो हमने किसी से कही | जो हमने किसी से कही | ||
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और शायद उसने नहीं सुनी | और शायद उसने नहीं सुनी | ||
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आकाश जब अपने रंगों समेत | आकाश जब अपने रंगों समेत | ||
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समेटता है | समेटता है | ||
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धूप की बिसात | धूप की बिसात | ||
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और डूबने लगता है सूरज | और डूबने लगता है सूरज | ||
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तो हमें लगता है | तो हमें लगता है | ||
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कि हम राह के किसी पड़ाव से | कि हम राह के किसी पड़ाव से | ||
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गुजर रहे हैं | गुजर रहे हैं | ||
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चुक रहे हैं पल पल | चुक रहे हैं पल पल | ||
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हो रहे हैं क्षर | हो रहे हैं क्षर | ||
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अन्धेरा है | अन्धेरा है | ||
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हमारा रैन-बसेरा | हमारा रैन-बसेरा | ||
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खुले आसमान के नीचे | खुले आसमान के नीचे | ||
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तारों के साथ | तारों के साथ | ||
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सुबह होती है | सुबह होती है | ||
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तो लगता है | तो लगता है | ||
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सँवरने लगी है कुदरत | सँवरने लगी है कुदरत | ||
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वह सँवरती है | वह सँवरती है | ||
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रोज-ब-रोज | रोज-ब-रोज | ||
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और सपने भी | और सपने भी | ||
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कह रहे होते हैं | कह रहे होते हैं | ||
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अलविदा | अलविदा | ||
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वह कहती है | वह कहती है | ||
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उठ जाग और खेंच | उठ जाग और खेंच | ||
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अपने इतिहास का भारी रथ | अपने इतिहास का भारी रथ | ||
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कुछ इंच और | कुछ इंच और | ||
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प्रकृति भी न जाने | प्रकृति भी न जाने | ||
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देती है | देती है | ||
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कितने-कितने संकेत | कितने-कितने संकेत | ||
− | |||
काश | काश | ||
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हम समझ पाते कभी | हम समझ पाते कभी | ||
− | |||
उसके कूट सन्देश | उसके कूट सन्देश | ||
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जो वह भेजती है | जो वह भेजती है | ||
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हमारे लिये | हमारे लिये | ||
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रोज़-ब-रोज़। | रोज़-ब-रोज़। | ||
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02:17, 13 जनवरी 2009 का अवतरण
कूट सन्देश
हवा चलती है
तो लगता है
हम ज़िंन्दा हैं
द्वार थपथपाती है
तो लगता है
वह हमें बुला रही है
बादल तैरते-तैरते
शक्लें बनाते हैं
तो लगता है
वे हमें खुश कर रहे हैं
(हाथी, घोड़े, ऊँट
बच्चों के गड्डमड्ड चित्र
लगते जानदार)
पेड़ सिर हिलाते हैं
तो लगता है
वे भर रहे हैं
हमारी बात की हामी
जो हमने किसी से कही
और शायद उसने नहीं सुनी
आकाश जब अपने रंगों समेत
समेटता है
धूप की बिसात
और डूबने लगता है सूरज
तो हमें लगता है
कि हम राह के किसी पड़ाव से
गुजर रहे हैं
चुक रहे हैं पल पल
हो रहे हैं क्षर
अन्धेरा है
हमारा रैन-बसेरा
खुले आसमान के नीचे
तारों के साथ
सुबह होती है
तो लगता है
सँवरने लगी है कुदरत
वह सँवरती है
रोज-ब-रोज
और सपने भी
कह रहे होते हैं
अलविदा
वह कहती है
उठ जाग और खेंच
अपने इतिहास का भारी रथ
कुछ इंच और
प्रकृति भी न जाने
देती है
कितने-कितने संकेत
काश
हम समझ पाते कभी
उसके कूट सन्देश
जो वह भेजती है
हमारे लिये
रोज़-ब-रोज़।