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माँ / श्रीनिवास श्रीकांत

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|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत
|संग्रह=घर एक यात्रा / श्रीनिवास श्रीकांत
}}
<poem>माँ
घर में होती है एक औरत
 
जिसे कहते हैं माँ
 
वह होती है
 
कामयाब कीमियागर
 
लोहे को सोने में बदलती
 
एक ऐसा जनन वृक्ष है माँ
 
पीपल और बरगद से भी
 
ज्य़ादा पूजनीय
 
बड़ा
 
जिसने पार कीं
 दर्द और दु:ख दुख की  
लालान्तर नदियाँ
 
काल के
 
अन्धेरे अन्तराल
 
सात धातुएँ तो हैं
 
सभी में
 
मगर एक गुण ओज
 
है उसमें ही
 
जिसका वह करती
 
आँचल भर-भर दान
 
एक- एक कर
 
अपने अनेक वंशजों को
 
हों सुर, मुनि या दानव
 
यह औरत है विश्वात्मा का
 
एक नायाब उपहार
 
कोये की तरह बुनती
 
वह कुटुम्ब के लिये रेशम
 
रानी की तरह
 
मोम और शहद के घर।
</poem>
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