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20:38, 13 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
कविता
उन उदास दिनों में भी
उत्साहित करती है
जब गिर चुके होते हैं
पेड़ के सारे पत्ते
नंगा खड़ा पेड़
नीचे धूप तापती धरती
रंगीन बाज़ार महंगी वस्तुओं
अनावश्यक ख़रीददारी के बीच
ठकठकाती है
सम्वेदनाओं को
पलटकर दिखाती है
सड़क किनारे खेलते
नंग-धड़ंग बच्चे
और भीख मांगती माँएँ
बोझिल आँखें टूटते शरीर के
बावजूद कविता
जगाती है देर रात तक
भुलाती है दिन भर की
उथल-पुथल
फिर
छोटी-सी झपकी भी
कई घंटों की निष्क्रिय नींद के
बराबर होती है
पुराने तवे-सी हो चुकी मैं
जल्दी गर्म हो
नियंत्रण खो उठती हूँ
भावनाओं एवं स्थितियों पर
तो कभी पाले-सी
देर तक हो जाती हूँ उदासीन
ऎसे में कविता तुम
मन के किसी कोने में
धीरे-धीरे सुलगती रहती हो
बचाए रखती हो
रिश्तों की गर्माहट व मिठास
मुझे करती हो तैयार
उनका साथ देने को
जो अपनी लड़ाई में
अलग-थलग से खड़े हैं।