भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"नासूर / रश्मि रमानी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रश्मि रमानी }} <poem> साफ़ हो गए वे तमाम कपड़े जो ख़र...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
मिट गए वे तमाम निशान | मिट गए वे तमाम निशान | ||
जिस्म पर बन जाते हैं जो | जिस्म पर बन जाते हैं जो | ||
− | अक्सर | + | अक्सर ज़ख़्म हो जाने के बाद |
पर | पर | ||
नहीं भर सका वो नासूर | नहीं भर सका वो नासूर |
21:34, 13 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
साफ़ हो गए वे तमाम कपड़े
जो ख़राब हो जाते थे कभी-कभी
अलग-अलग दाग-धब्बों से
मिट गए वे तमाम निशान
जिस्म पर बन जाते हैं जो
अक्सर ज़ख़्म हो जाने के बाद
पर
नहीं भर सका वो नासूर
जो मुझे मिला किसी सज़ा की तरह
जिसका कसूर मैंने किया ही नहीं था
गुज़रा वक़्त
आज भी बार-बार याद आता है
अथाह कोलाहल के बीच
जैसे कोई ख़ामोश लम्हा
राख में दबा अंगारा
वीराने में खिला कोई अनजान फूल।