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"कल्पवृक्ष / तुलसी रमण" के अवतरणों में अंतर

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बड़ी मेहनत से पाले गए कल्पवृक्ष के शिखर पर बसेरा है सर्वभक्षी कव्वों का  
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फलों को कुतर–कुतर कर
 
फलों को कुतर–कुतर कर
टहनियों पर टांग दी है जातियों की लंबी–लंबी सूचियां टांक दिए हैं  
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टहनियों पर टाँग दी है  
तने पर हिज्जे सम्प्रदायों के  शाखाओं से रिसता है गोंद विधर्मता का  
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जातियों की लम्बी–लम्बी सूचियाँ
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टाँक दिए हैं  
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तने पर हिज्जे सम्प्रदायों के   
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शाखाओं से रिसता है गोंद विधर्मता का  
  
छाया में एसकी रचना बलात्कारों की  
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छाया में उसकी रचना बलात्कारों की  
  
 
पत्ता-पत्ता है छलनी  
 
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स्वार्थ के तीरों से   
 
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भीतर ही भीतर से  
 
भीतर ही भीतर से  
पड़ा है खोखला तन्त्र का महातरु  
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पड़ा है खोखला  
भरपेट कुड़-कुड़ाते हैं कव्वे महावृक्ष की जड़ें गड़ती जा रहीं गहरी जमीन में
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तन्त्र का महातरु  
तना मजबूत तना रहा बराबर लहलहा रहीं शाखाएं हरी–भरीं प्रभामंडल में इसके पल रही पसरी खुशहाली  
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हवा में डोलते जर्जर वृक्ष पर कभी कांप उठते हैं कव्वे देते महावृक्ष के टूट गिरने का रहस्यमय संकेत  
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भरपेट कुड़-कुड़ाते हैं कव्वे  
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महावृक्ष की जड़ें गड़ती जा रहीं  
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गहरी ज़मीन में
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तना मज़बूत
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तना रहा बराबर  
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लहलहा रहीं शाखाएँ हरी–भरीं  
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पसरी खुशहाली  
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हवा में डोलते  
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कभी काँप उठते हैं कव्वे  
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रहस्यमय संकेत  
 
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03:33, 14 जनवरी 2009 का अवतरण

बड़ी मेहनत से पाले गए
कल्पवृक्ष के शिखर पर बसेरा है
सर्वभक्षी कव्वों का

फलों को कुतर–कुतर कर
टहनियों पर टाँग दी है
जातियों की लम्बी–लम्बी सूचियाँ
टाँक दिए हैं
तने पर हिज्जे सम्प्रदायों के
शाखाओं से रिसता है गोंद विधर्मता का

छाया में उसकी रचना बलात्कारों की

पत्ता-पत्ता है छलनी
स्वार्थ के तीरों से
भीतर ही भीतर से
पड़ा है खोखला
तन्त्र का महातरु

भरपेट कुड़-कुड़ाते हैं कव्वे
महावृक्ष की जड़ें गड़ती जा रहीं
गहरी ज़मीन में
तना मज़बूत
तना रहा बराबर
लहलहा रहीं शाखाएँ हरी–भरीं
प्रभामंडल में इसके
पल रही
पसरी खुशहाली
हवा में डोलते
जर्जर वृक्ष पर
कभी काँप उठते हैं कव्वे
देते महावृक्ष के
टूट गिरने का
रहस्यमय संकेत