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"तुम रहो यूँ ही / तुलसी रमण" के अवतरणों में अंतर

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अपनी बाहों में पूरा समेट
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डबडबाई आँखों  
 
भीनी मुस्कान के साथ  
 
भीनी मुस्कान के साथ  
तुम झुणक2  देती रहो   
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मेरे खिले फूलों को  
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मेरे खिले फूल को  
उसी ज़मीन पर उतारने के लिए.... चाहकर भी झपटी नहीं तुम
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उसी ज़मीन पर उतारने के लिए....  
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चाहकर भी झपटी नहीं तुम
 
इस फूल की ओर  
 
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बस पीती रहो  
 
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मैं कहता चलूं  
 
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कविता...  
 
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''1. बुरंश का वृक्ष
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2. पेड़ को खूब हिलाना''
 
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11:31, 15 जनवरी 2009 के समय का अवतरण

डाल-डाल
टहनी- टहनी चढ़ता रहूँ बार-बार

मेरे भीतर उगे
इस बरास1 के तने को
अपनी बाहों में पूरा समेट
डबडबाई आँखों
भीनी मुस्कान के साथ
तुम झुणक2 देती रहो
मेरे खिले फूल को
उसी ज़मीन पर उतारने के लिए....

चाहकर भी झपटी नहीं तुम
इस फूल की ओर
बस पीती रहो
तल्लीन
इसके भीतर महकता पराग
नापती रहो
आदमकाद आईना
बार-बार.....
तुमसे मैने
और चाहा भी क्या है?
आखिर कोई
दे भी क्या सकता है
किसी को
महज़ अपने होने के सिवा

बस
तुम रहो ज़रा यों ही
मैं कहता चलूं
कविता...

1. बुरंश का वृक्ष
2. पेड़ को खूब हिलाना