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23:06, 18 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
एक आदमी कुँए की जगत पर
पाँव टेके खड़ा है
कितने बड़े एकान्त में
एक आदमी अकेला
ताज़ी बिखरी हुई
काली मिट्टी के खेतों के बीच
बादलों की रंगबाज़ी भांपता
अनन्त हरियाली को
दोनों आँखों की ओक से पीता हुआ
ढोर डंगर एक भी नही
एक भी उड़ता परिन्दा तक नहीं
आकाश में कितने भारी भरकम बादल
और सिर्फ़ वही एक आदमी
बीच बीच में अँगुलियों से अपनी
मूंछों को जाँचता हुआ...
मैंने ट्रेन की खिड़की से इतना ही देखा
और दहशत से भर गया
उसने सिर्फ़ एक उड़ती से नज़र डाली
और बादलों की रंगबाज़ी में उलझ गयी
जैसे उसके अनन्त विस्तार में से
एक मक्खी उड़ गई!