"भाषा के इस भद्दे नाटक में / चन्द्रकान्त देवताले" के अवतरणों में अंतर
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जिसे विदूषक ने आज दफ़ना दिया है कहीं | जिसे विदूषक ने आज दफ़ना दिया है कहीं | ||
मंच के नीचे या नायकों के तख्तेताऊस के पास | मंच के नीचे या नायकों के तख्तेताऊस के पास | ||
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+ | देखो दोमुँहे शब्दों को | ||
+ | ध्यान से देखो | ||
+ | सुनो उनकी पीठ पीछे की फुसफुसाहट | ||
+ | मंच के तमाम तामझाम के बाद की | ||
+ | वह नेपथ्य की भूमिगत साज़िश... | ||
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+ | इस साज़िश को मैं पहचानता हूँ | ||
+ | अपनी कविता की कपट-बेधी आँखों से | ||
+ | क्योंकि कपट से कपट के बीच धँसी हुई यह भाषा | ||
+ | सुख के पहाड़ की चोटी तक पहुँचाती है | ||
+ | हड्डियों को सपना दिखाती है तपती धूप में | ||
+ | एक क्षण बाद | ||
+ | गायब पहाड़ | ||
+ | क्षत-विक्षत सपना | ||
+ | जस की तस् हड्डियाँ | ||
+ | यह भाषा चुपके-चुपके | ||
+ | आदमी का माँस खाती है | ||
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+ | सत्य को जब चीथता है कोई शब्द | ||
+ | या कोई शब्द ध्वस्त हो | ||
+ | देता है हमें सत्य | ||
+ | तब टपकता है दूध कविता का | ||
+ | मज़बूत होती हैं घास की जड़ें | ||
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+ | किंतु इसी वक्त यह मुझसे नहीं होगा | ||
+ | होगा तब भी | ||
+ | टेंटुआ मसकना इस झूठी भाषा का | ||
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+ | मुझे मक्खी को मकड़ी | ||
+ | या तिनके को तमंचा बनाना नहीं आता | ||
+ | अभी यहीं इसी वक़्त मुझसे ही | ||
+ | सब भेद जानना | ||
+ | उस गूँगे आदमी से वक़्त पूछने जैसा होगा | ||
+ | जिसके हाथ में अभी घड़ी तक नहीं है | ||
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+ | किंतु मुद्दे की चीज़ है उसके संकेत | ||
+ | जिन तक पहुँचना अपने आप | ||
+ | उस झूठी घड़ी को तोड़ने जैसा होगा, | ||
+ | जिसने कभी हमें सही वक़्त नहीं बताया | ||
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+ | यह उन तमाम झूठी ज़ुबानों को | ||
+ | काटने जैसा भी होगा | ||
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+ | भाषा का पानी | ||
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+ | आदमी का सत् | ||
+ | कीचड़ हो चुका है. | ||
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23:30, 18 जनवरी 2009 का अवतरण
तुम मुझसे पूछते हो
मैं तुमसे पूछता हूँ
सुबह हो जाने के बाद
क्या सचमुच सुबह हो गयी है
भय से चाकू ने
हादसे की नदी में डुबो दिया है
समय की तमाम ठोस घटनाओं को
ताप्ती का तट, सतपुड़ा की चट्टानें,
इतिहास के हाथी-घोड़े
कवितायेँ मुक्तिबोध की
ये सब बँधी हुई मुट्ठी के पास
क्या एक तिनका तक नहीं बनते
उत्साह की एक छोटी-सी मोमबत्ती से
चुँधिया गयी हैं कितनी तेजस्वी आँखें
कोई नहीं देख पाटा
फफूँद से ढँकी दिन की त्वचा
महिमा-मण्डित महाकाव्य के बीचोंबीच
दबा-चिपका चूहे का शव
कोई नहीं ढूँढ पाता...
वे भी जो अपने पसीने से
घुमाते हैं समय का पहिया
नहीं जानते अपनी ताक़त
क्योंकि उनके हाथ
नमक ओ' प्याज के टुकड़े को ढूँढते-ढूँढते
एक दिन काठ के हो जाते हैं
वहां से,उस ऊँची जगह से
वे कुछ कहते हैं
हम कुछ सुनते हैं
किंतु वह कौनसी भाषा है
जो दाँतों के काटे नहीं कटती
जो आँतों में पहुँचकर अटक जाती है
कभी एक बूँद खून टपकाता हुआ छोटा-सा चाकू
अभी एक बित्ता उजास दिखाती हुई छोटी सी मोमबत्ती
सौंपते हुए यह भाषा
इतिहास के आमाशय
और भूखंड के मस्तिष्क को
पंगु बना देना चाहती है,
भाषा में गूँथी हुई विजय
भाषा के पोत में चमकते हुए सपने
भाषा में छपी हुई गाथाएँ
चखते हुए अपनी आँखों से इन्हें
क्या हम एक दिन अंधे हो जाएँगे
तुम सोचते हो
सब सोचना चाहते हैं
मैं भी सोचता हूँ
किस अग्नि-स्नान के बाद
उगेंगे-छपेंगे वे शब्द
जिनके पेट में छिपा होगा वह सत्य
जिसे देखते ही पहचान जाना होगा आसान
किंतु भाषा के इस भद्दे नाटक में घमासान
जिसे विदूषक ने आज दफ़ना दिया है कहीं
मंच के नीचे या नायकों के तख्तेताऊस के पास
देखो दोमुँहे शब्दों को
ध्यान से देखो
सुनो उनकी पीठ पीछे की फुसफुसाहट
मंच के तमाम तामझाम के बाद की
वह नेपथ्य की भूमिगत साज़िश...
इस साज़िश को मैं पहचानता हूँ
अपनी कविता की कपट-बेधी आँखों से
क्योंकि कपट से कपट के बीच धँसी हुई यह भाषा
सुख के पहाड़ की चोटी तक पहुँचाती है
हड्डियों को सपना दिखाती है तपती धूप में
एक क्षण बाद
गायब पहाड़
क्षत-विक्षत सपना
जस की तस् हड्डियाँ
यह भाषा चुपके-चुपके
आदमी का माँस खाती है
सत्य को जब चीथता है कोई शब्द
या कोई शब्द ध्वस्त हो
देता है हमें सत्य
तब टपकता है दूध कविता का
मज़बूत होती हैं घास की जड़ें
किंतु इसी वक्त यह मुझसे नहीं होगा
होगा तब भी
टेंटुआ मसकना इस झूठी भाषा का
सबसे होगा,
मुझे मक्खी को मकड़ी
या तिनके को तमंचा बनाना नहीं आता
अभी यहीं इसी वक़्त मुझसे ही
सब भेद जानना
उस गूँगे आदमी से वक़्त पूछने जैसा होगा
जिसके हाथ में अभी घड़ी तक नहीं है
किंतु मुद्दे की चीज़ है उसके संकेत
जिन तक पहुँचना अपने आप
उस झूठी घड़ी को तोड़ने जैसा होगा,
जिसने कभी हमें सही वक़्त नहीं बताया
यह उन तमाम झूठी ज़ुबानों को
काटने जैसा भी होगा
जिनकी छाया पड़ने से
भाषा का पानी
यानी
आदमी का सत्
कीचड़ हो चुका है.