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+ | चखा था आधा-आधा | ||
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+ | उगते रहे किनते ही शाखी | ||
+ | झड़ते रहे कितने फल | ||
+ | स्तब्ध रहा पहाड़ों का | ||
+ | परस्पर टकराना | ||
+ | थक गया | ||
+ | गाँव से गाँव सुलगना | ||
+ | गूँजता रहा ‘पवाड़ा’ हर घाटी,गाँव-गाँव | ||
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+ | काया हो जाओ | ||
+ | तुम उस फल की | ||
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+ | बीज हो जाता हूँ मैं | ||
+ | और उगते रहें बार-बार | ||
+ | घाटी-घाटी गाँव-गाँव | ||
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01:29, 19 जनवरी 2009 का अवतरण
{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसी रमण
|संग्रह=ढलान पर आदमी / तुलसी रमण
}}
आओ चले उस गाँव
जहाँ झड़ते अनायास
पके फल - डाल-डाल छाँव- छाँव
चलो जीयें उस पेड़ की छाँव
जिसका वह एक फल
‘झाँणों- मनसा’ ने
चखा था आधा-आधा
रह गए थे देखते
छूट गया था बीज
उसी पेड़ की छाँव
बीज -दर –बीज
उगते रहे किनते ही शाखी
झड़ते रहे कितने फल
स्तब्ध रहा पहाड़ों का
परस्पर टकराना
थक गया
गाँव से गाँव सुलगना
गूँजता रहा ‘पवाड़ा’ हर घाटी,गाँव-गाँव
काया हो जाओ
तुम उस फल की
बीज हो जाता हूँ मैं
और उगते रहें बार-बार
घाटी-घाटी गाँव-गाँव
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