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भय / मोहन साहिल

544 bytes added, 20:06, 18 जनवरी 2009
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|रचनाकार=तुलसी रमणमोहन साहिल|संग्रह=ढलान पर आदमी एक दिन टूट जाएगा पहाड़ / तुलसी रमणमोहन साहिल
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आओ चले उस गाँवबहुत डर लगता है मित्र जहाँ झड़ते अनायास पके फल - डाल-डाल छाँव- छाँव चलो जीयें उस पेड़ पहाड़ की छाँव कोई पसली जब टूटकर जिसका वह एक फल ढलानो से लुढ़कती चली जाती है ‘झाँणों- मनसा’ ने आँखें बंद कर लेता हूं चखा था आधा-आधा जब कोई देवदार रह गए थे देखतेऔंधे मुंह गिरता है छूट गया था बीज राजमार्ग अवरुद्ध हो जाता है उसी पेड़ की छाँव स्क्रीन पर दिखाए जाते हैं बीज -दर –बीज अनगिनत शव उगते रहे किनते ही शाखीझड़ते रहे कितने फलस्तब्ध रहा पहाड़ों का परस्पर टकरानाथक गया गाँव से गाँव सुलगना और वाचक उसी मुस्कान के साथ गूँजता रहा ‘पवाड़ा’ हर घाटी,गाँव-गाँव पढ़ता है दुर्घटना के समाचार
काया हो जाओ सहम जाते हूँ तुम उस फल मेरा भाई जबजुदा रहने की बात करता है  बीज हो जाता हूँ मैं बूढ़ी माँ मर जाने को कहती है और उगते रहें बार-बारपत्नि करती है प्रार्थना संभल कर जाने और्जल्दी लौट आने की यहाँ तक कि बेटा भी कैंसर होने से आगाह करता हैबीड़ी न पीने को कहता है बस अड्डे के बोर्ड पर लिखा है रहता है एडस का कोई ईलाज नहीं ग्रहण न करें बिना जाँच किसी का ख़ून सुनो मित्र!तुम बताओ इतनी चेतावनिओं के बीच जीना घाटी-घाटी गाँव-गाँवक्या आसान है?
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