भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"प्रतीक्षा / चन्द्रकान्त देवताले" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले |संग्रह=लकड़बग्घा हँस रहा ...)
 
 
पंक्ति 20: पंक्ति 20:
 
एक धब्बा धडकनों तक जाकर
 
एक धब्बा धडकनों तक जाकर
 
फैलता जा रहा है
 
फैलता जा रहा है
यहाँ बाहर कितनी साड़ी रेत बिछी है
+
यहाँ बाहर कितनी सारी रेत बिछी है
 
और फूलों के बीज
 
और फूलों के बीज
 
कसी हुई मुट्ठी के पसीने में नहा रहे हैं
 
कसी हुई मुट्ठी के पसीने में नहा रहे हैं
पंक्ति 39: पंक्ति 39:
 
शायद तुम्हारे समय के क्षितिज पर
 
शायद तुम्हारे समय के क्षितिज पर
 
कोई सूर्यमुखी फूल हँसता हुआ मिले...
 
कोई सूर्यमुखी फूल हँसता हुआ मिले...
 
 
</poem>
 
</poem>

07:30, 19 जनवरी 2009 के समय का अवतरण


परेशान शब्दों से घिरा हुआ होने पर
कितना मुश्किल हो रहा है
एक भी शब्द ढूँढ लेना
उस चीज़ के लिए
जो मौत के बेहद नज़दीक नहीं है
पर ज़िन्दगी से बहुत दूर जा गिरी है

बौखलाई हुई दिनचर्या के बाद
नींद को किसी शांत राग में गूँथ लेना
कितनी बड़ी हिमाकत होगी
चाहे आप सचमुच में आदमी ही क्यूँ न होओ,

एक धब्बा धडकनों तक जाकर
फैलता जा रहा है
यहाँ बाहर कितनी सारी रेत बिछी है
और फूलों के बीज
कसी हुई मुट्ठी के पसीने में नहा रहे हैं
परछाइयों की सीमाएँ और
झूलती हुई चीज़ों की परछाइयों के बीच फैलता हुआ
कुत्तों का रुदन
और स्मृतियाँ ख़ुद की
दूर किसी काले पहाड़ पर चढ़ती हुई
और तुम यहाँ
सूखी हुई नदी के बिस्तर पर
उत्तेजित शब्दों की भीड़ में घिरे हुए...

प्रतीक्षा करो बरसात की और
फिर और बरसात के बाद
दिन की हरी आँखों की
और फिर उस हरी रौशनी में
ढूँढना अपने शब्द बीज को
शायद तुम्हारे समय के क्षितिज पर
कोई सूर्यमुखी फूल हँसता हुआ मिले...