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ज़बाँ है शुक्र में क़ासिर शिकस्ता-बाली के | ज़बाँ है शुक्र में क़ासिर शिकस्ता-बाली के |
16:25, 19 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
गिला लिखूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का
लहू में ग़र्क़ सफ़ीना हो आशनाई का
ज़बाँ है शुक्र में क़ासिर शिकस्ता-बाली के
कि जिनने दिल से मिटाया ख़लिश रिहाई का
मिरे सजूद की दैरो-हरम से गुज़री क़द्र
रखूँ हूँ दावा तिरे दर पे जुब्बासाई का
दिमाग़ झड़ गया आख़िर तिरा न, ऐ नमरूद
चला न पिशा से कुछ बस तिरी ख़ुदाई का
कभू पहुँच न सके दिल से ता-ज़बाँ यक हर्फ़
अगर बयाँ करूँ तालअ की नारसाई का
दिखाऊँगा तुझे ज़ाहिद, उस आफ़ते-दीं को
ख़लल दिमाग़ में तेरे है पारसाई का
तलब है आप ये कर नाने-राहत, ऐ सौदा
फिरे है आप ये कासा लिए गदाई का
शब्दार्थ:
जुब्बासाई: धार्मिकता, पिशा: मच्छर, नारसाई: ना-पहुँच, आफ़ते-दीं: धर्म के लिए आफ़त( यहाँ सुन्दरी के लिए प्रयुक्त), पारसाई: धार्मिकता, नाने-राहत: चैन की रोटी, कासा: भिक्षा-पात्र, गदाई: भिक्षा माँगना