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00:56, 20 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
एक जुआ है जिस ओर
आसमान की बिजली बीच-बीच में होने को होगी, अभी
मंशा का कोई ओर-छोर नहीं
बिल्कुल ग़लत माह के बादल घिर आएँगे, अभी
ताम्बे की पतली घण्टियों पर पहली बूंदें, बारिश से पहले की बारिश में
पसीने की तरह आएँगी । उन्हें पहने हुए
घास के बिना बकरियाँ हैरान होने लगी हैं
मैंने नहीं कहा था यहाँ रहने के लिए
शब्दों के बीच रहना, उन्हें सहना होगा मेरा एकल श्रम
एक साँस और एक शब्द के बीच मेरे ही तोड़े हुए कई पुल
बस्तियों के बीच, पानी के पास एक मैला एकान्त
और धूप में बौराए हुए बच्चे
मैं बचाव का उपक्रम किए हुए
अपने श्रम के एकल तने से पिट्ठा लगाकर बैठ रहा हूँ
लो, बैठ रहा हूँ हवा में ढीठ उँगलियाँ नचाता हुआ
अपने पत्तों और वस्त्रों और मित्रों के बिना