भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मुहब्बतों के खुले दर नज़र नहीं आते / ज्ञान प्रकाश विवेक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक |संग्रह=आंखों में आसमान / ज्ञ...)
 
(कोई अंतर नहीं)

08:57, 20 जनवरी 2009 के समय का अवतरण

महोबतों के खुले दर नज़र नहीं आते
कि अब ख़ुलूस के मंज़र नज़र नहीं आते

बहुत उदास है आकाश मेरी बस्ती का
कि बच्चे आजकल छत पर नज़र नहीं आते

किसे बताऊँ हक़ीक़त फ़साद की यारो
खुले किवाड़ के अब घर नज़र नहीं आते

जो आसमान अमन का बिछाया करये थे
ये सानेहा वो कबूतर नज़र नहीं आते