"तुम भी यहीं हो कहीं शायद / अनूप सेठी" के अवतरणों में अंतर
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनूप सेठी }} किसी दिन अचानक सुबह, शाम या रात में आंखों ...) |
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=अनूप सेठी | |रचनाकार=अनूप सेठी | ||
}} | }} | ||
− | + | <poem> | |
किसी दिन अचानक | किसी दिन अचानक | ||
− | |||
सुबह, शाम या रात में | सुबह, शाम या रात में | ||
− | |||
आंखों के सामने आ खड़ा हो आसमान | आंखों के सामने आ खड़ा हो आसमान | ||
− | |||
भुरभुरी धुंध, बादल पहाड़ी पर चढ़ आएं | भुरभुरी धुंध, बादल पहाड़ी पर चढ़ आएं | ||
− | |||
स्लेट की छतों को ढक लें धीरे धीरे | स्लेट की छतों को ढक लें धीरे धीरे | ||
− | |||
चीड़ की नुकीली पत्तियां एक एक बूंद को थामे रहें | चीड़ की नुकीली पत्तियां एक एक बूंद को थामे रहें | ||
− | |||
किसी दिन अचानक | किसी दिन अचानक | ||
− | |||
सुबह, शाम या रात में | सुबह, शाम या रात में | ||
− | |||
खिड़की ज़रा सा पर्दे को हिलाकर | खिड़की ज़रा सा पर्दे को हिलाकर | ||
− | |||
कुर्सी पर आ बिराजे | कुर्सी पर आ बिराजे | ||
− | |||
आंखों के सामने आसमान | आंखों के सामने आसमान | ||
− | + | व्यस्त लोगों के कँधे झकझोर के पूछूं | |
− | व्यस्त लोगों के | + | |
− | + | ||
देखा तुमने दूधिया था आसमान | देखा तुमने दूधिया था आसमान | ||
− | + | बूँद दो बूँद गिरेंगी | |
− | + | कम हो जाए बम्बई में गर्मी शायद | |
− | + | ||
− | कम हो जाए | + | |
− | + | ||
ट्रेनें तो पर चल रही हैं नियमित | ट्रेनें तो पर चल रही हैं नियमित | ||
− | |||
चिकनी ढीठ अरब की खाड़ी | चिकनी ढीठ अरब की खाड़ी | ||
− | |||
जाओ तुम भी लादो उतारो जहाज़ | जाओ तुम भी लादो उतारो जहाज़ | ||
− | |||
छाती पर व्यापारियों का बोझ ढोना ही बदा है | छाती पर व्यापारियों का बोझ ढोना ही बदा है | ||
− | |||
मुझे तो छुट्टी दे दो आज | मुझे तो छुट्टी दे दो आज | ||
− | + | आसमान से संवाद कर लूँ | |
− | आसमान से संवाद कर | + | आविदा परवीन को सुन लूँ |
− | + | धुँध के रेशों से सवा दो अक्षर की कहानी बुन लूँ | |
− | आविदा परवीन को सुन | + | विजय कुमार की कविताएं पढ़ लूँ |
− | + | अदृश्य हो जाएँगी सूखी पत्तियाँ। | |
− | + | ||
− | + | ||
− | विजय कुमार की कविताएं पढ़ | + | |
− | + | ||
− | अदृश्य हो | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
(1987) | (1987) | ||
+ | </poem> |
00:54, 21 जनवरी 2009 का अवतरण
किसी दिन अचानक
सुबह, शाम या रात में
आंखों के सामने आ खड़ा हो आसमान
भुरभुरी धुंध, बादल पहाड़ी पर चढ़ आएं
स्लेट की छतों को ढक लें धीरे धीरे
चीड़ की नुकीली पत्तियां एक एक बूंद को थामे रहें
किसी दिन अचानक
सुबह, शाम या रात में
खिड़की ज़रा सा पर्दे को हिलाकर
कुर्सी पर आ बिराजे
आंखों के सामने आसमान
व्यस्त लोगों के कँधे झकझोर के पूछूं
देखा तुमने दूधिया था आसमान
बूँद दो बूँद गिरेंगी
कम हो जाए बम्बई में गर्मी शायद
ट्रेनें तो पर चल रही हैं नियमित
चिकनी ढीठ अरब की खाड़ी
जाओ तुम भी लादो उतारो जहाज़
छाती पर व्यापारियों का बोझ ढोना ही बदा है
मुझे तो छुट्टी दे दो आज
आसमान से संवाद कर लूँ
आविदा परवीन को सुन लूँ
धुँध के रेशों से सवा दो अक्षर की कहानी बुन लूँ
विजय कुमार की कविताएं पढ़ लूँ
अदृश्य हो जाएँगी सूखी पत्तियाँ।
(1987)