भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सारनाथ की एक शाम / शमशेर बहादुर सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
पंक्ति 28: पंक्ति 28:
 
::छल का अपना ही
 
::छल का अपना ही
 
:::::छंद है
 
:::::छंद है
 +
::सर्वोपरि मधुर मुक्त
 +
:::और कितना एब्सट्रैक्ट
 +
:क्योंकि व्यभिचार ही आधुनिकतम
 +
:काव्यकला है और आज
 +
:आलोचना के डाक्टर
 +
:उसे अनादि भी कहते हैं)।
 +
 +
::शब्द का परिष्कार
 +
::स्वयं दिशा है
 +
वही मेरी आत्मा हो
 +
::आधी दूर तक
 +
तब भी
 +
तू बहुत दूर है  बहुत आगे
 +
::त्रिलोचन।
 +
 +
वह कोलाहल जो कोंपलों से भरा है
 +
सुनकर
 +
तू विक्षुब्ध हो-हो जाता
 +
::क्या उपनिषदों का शोर
 +
::उसे दबा पाता।
 +
 +
वरूणा के किनारे एक चक्रस्तूप है
 +
शायद वहीं विश्व का केंद्र है
 +
वहीं कहीं
 +
:ऐसा सुनते हैं।
  
 
क्रमशः...
 
क्रमशः...
 
</poem>
 
</poem>

08:23, 22 जनवरी 2009 का अवतरण

[त्रिलोचन के लिए]

ये आकाश के सरगम हैं
खनिज रंग हैं
बहुमूल्य अतीत हैं
या शायद भविष्य।
तू किस
गहरे सागर के नीचे
के गहरे सागर
के नीचे का
गहरा सागर होकर
भिंच गया है
अथाह शिला से केवल
अनिंद्य अवर्ण्य मछलियों के विद्युत
तुझे खनते हैं
अपने सुख के लिए।

(सुख तो व्यंग्य में ही है
और कहाँ
युग दर्शन
मित्र
छल का अपना ही
छंद है
सर्वोपरि मधुर मुक्त
और कितना एब्सट्रैक्ट
क्योंकि व्यभिचार ही आधुनिकतम
काव्यकला है और आज
आलोचना के डाक्टर
उसे अनादि भी कहते हैं)।

शब्द का परिष्कार
स्वयं दिशा है
वही मेरी आत्मा हो
आधी दूर तक
तब भी
तू बहुत दूर है बहुत आगे
त्रिलोचन।

वह कोलाहल जो कोंपलों से भरा है
सुनकर
तू विक्षुब्ध हो-हो जाता
क्या उपनिषदों का शोर
उसे दबा पाता।

वरूणा के किनारे एक चक्रस्तूप है
शायद वहीं विश्व का केंद्र है
वहीं कहीं
ऐसा सुनते हैं।

क्रमशः...