"सारनाथ की एक शाम / शमशेर बहादुर सिंह" के अवतरणों में अंतर
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− | :क्योंकि व्यभिचार ही आधुनिकतम | + | ::क्योंकि व्यभिचार ही आधुनिकतम |
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− | :आलोचना के डाक्टर | + | ::आलोचना के डाक्टर |
− | :उसे अनादि भी कहते हैं)। | + | ::उसे अनादि भी कहते हैं)। |
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:ऐसा सुनते हैं। | :ऐसा सुनते हैं। | ||
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+ | तो फिर क्षुब्ध क्यों है तू। | ||
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+ | :जैसे य' आवारा आकाश बंधे हुए हैं अपने | ||
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+ | ओ शक्ति से साधक अर्थ के साधक | ||
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+ | उसकी ऊष्मा में | ||
+ | सुलग रहा हूँ | ||
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+ | एक बासंती सोम झलक जो मेरे | ||
+ | अंक से छीनकर चांद लुका लेता है | ||
+ | खींच ले जाती है प्राण मेरा | ||
+ | ::उस पर भी है तेरी दृष्टि। | ||
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+ | आंतरिक एकांत | ||
+ | वरूणा किनारे की वह पद्म- | ||
+ | :ऊष्मा। | ||
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+ | (1962) | ||
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21:52, 22 जनवरी 2009 का अवतरण
[त्रिलोचन के लिए]
ये आकाश के सरगम हैं
खनिज रंग हैं
बहुमूल्य अतीत हैं
या शायद भविष्य।
तू किस
गहरे सागर के नीचे
के गहरे सागर
के नीचे का
गहरा सागर होकर
भिंच गया है
अथाह शिला से केवल
अनिंद्य अवर्ण्य मछलियों के विद्युत
तुझे खनते हैं
अपने सुख के लिए।
(सुख तो व्यंग्य में ही है
और कहाँ
युग दर्शन
मित्र
छल का अपना ही
छंद है
सर्वोपरि मधुर मुक्त
और कितना एब्सट्रैक्ट
क्योंकि व्यभिचार ही आधुनिकतम
काव्यकला है और आज
आलोचना के डाक्टर
उसे अनादि भी कहते हैं)।
शब्द का परिष्कार
स्वयं दिशा है
वही मेरी आत्मा हो
आधी दूर तक
तब भी
तू बहुत दूर है बहुत आगे
त्रिलोचन।
वह कोलाहल जो कोंपलों से भरा है
सुनकर
तू विक्षुब्ध हो-हो जाता
क्या उपनिषदों का शोर
उसे दबा पाता।
वरूणा के किनारे एक चक्रस्तूप है
शायद वहीं विश्व का केंद्र है
वहीं कहीं
ऐसा सुनते हैं।
आधुनिकता आधुनिकता
डूब रही है महासागर में
किसी कोंपल के ओंठ पे
उभरी ओस के महासागर में
डूब रही है
तो फिर क्षुब्ध क्यों है तू।
x x x x x x x x x x x x
तूने शताब्दियों
सानेट में मुक्त छंद खन कर
संस्कृत वृत्तों में उन्हें बांधा सहज ही लगभग
जैसे य' आवारा आकाश बंधे हुए हैं अपने
सरगम के अट्टहाम में।
ओ शक्ति से साधक अर्थ के साधक
तू धरती को दोनों ओर से
थामे हुए और
आँख मींचे हुए ऐसे ही सूंघ रहा है उसे
जाने कब से।
तुझे केवल मैं जानता हूँ।
क्योंकि
मैं उसी धरती में लौट रहा हूँ उसकी
ऋतुओं की पलकों सा बिछा हुआ मैं
उसकी ऊष्मा में
सुलग रहा हूँ
शांति के लिए।
एक बासंती सोम झलक जो मेरे
अंक से छीनकर चांद लुका लेता है
खींच ले जाती है प्राण मेरा
उस पर भी है तेरी दृष्टि।
आंतरिक एकांत
वरूणा किनारे की वह पद्म-
ऊष्मा।
(1962)