भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कम्बल / अनूप सेठी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 70: पंक्ति 70:
 
या फटे चारखाने से डर डर जाएगी।
 
या फटे चारखाने से डर डर जाएगी।
  
(1993)
+
                                  (1993)
 
</poem>
 
</poem>

23:44, 22 जनवरी 2009 का अवतरण

हमारी ननिहाल की तरफ चारखानेदार कंबलों का चलन रहा है
सर्दियों में ओढ़ने बिछाने को, सुबह में रात को
आंधी तूफान में, झड़ी बरसात में, लपेटने को नर्म गर्म एक अदद
कंबल हर किसी के पास होता है
ओस में जरा सा भीग जाए
भेड़ की ऊन सा महकने लगता है
दूर शहर की ठिठुरन में भी सब कुछ आंखों के सामने नाचने लगता है
भेड़ों के झुंड, गोशाला, गोबर, घास, आमों का बौर और
बिल्व के गोल गोल फल

कहते हैं खङ्ढी वाली नानी गांव में रह गई थी जब
लाहौर सरहद पार हो गया था
नानी सबके लिए बुनती रही पुरखों की तरह
सबके सब पुरखों की तरह ओढ़ते रहे चारखानेदार कंबल
शहर में आते वक्त भी पास में थी यही
नर्मी गर्मी और खुशबू

छ: दिसंबर की रात के बाद जब सब डरने लगे
मैं कंबल ओढ़े अकेला सोया
सपने में दिखी खङ्ढी वाली नानी रोती थी
पुराने आम का पेड़ आंगन में गिर गया था
बेल भी ढह गया था
गांव के सब लोगों ने चारखानेदार चादर
दोनों दरख्तों पर ओढ़ा रखी थी
मातम में बैठे थे सब रोते बिलखते
आंसुओं से तर हो गई चादर उठने लगी
भेड़ों की गोबर की घास की बौरों की बेल के फलों की महक

नींद खुली भड़ाक से
हवा चल रही थी बंबई जल रही थी
चीखें चिल्लाहटें थीं मर्म भेदी
गर्दन पसीने से तर थी
कंबल की खुशबू सूंघने की अब सुध न थी
भय था बेहद कंबल चिपक चिपक जाता था छाती से

अंधियारे में निकल पड़ा महानगर की सड़कों पर गलियों में
चालों की झोंपड़ियों की जलती ढहती छतों पर पांव पड़े
गोलियां गिरीं चीखों पर चीखें भागने लगीं बदहवास
हड़बड़ाहट में लगा जैसे कंबल मुझसे छूट गया

पुरानी किताबों के ढेर में छिपा रहा दम साधे कई दिन तक

सुबह हुई तो सन्नाटा गहरा था
जैसे कोई बोलेगा तो फिर कोई हादसा हो जाएगा

सहमी और थमी हुई हवा में देखा चारखाना
तार तार हो गया था गोलियों से छिल गया था
तलवारों से कट गया था चीखों से चिर गया था
खून से सन गया था आश्वासनों से लिथड़ गया था

बहुत भारी कदमों से जले हुए मलवे से बचता रास्ता ढूंढता
घर आया किसी तरह ठंड और बुखार से ठिइुरता

बहुत देर तक हम कंबल की ढेरी के पास बैठ बहुत रोए
नन्हीं सी बच्ची ने तार तार कंबल के छेद में
फूलों जैसे अपने पैर फंसा रखे थे
अपने ऊपर खींचे जाती थी
विश्वास नहीं होता अब चिथड़ा चारखाने में
फूल भी खिल सकते हैं

जब बच्ची बड़ी हो जाएगी
सुनेगी कंबल और ननिहाल की दंतकथा सी बातें
पता नहीं उसे भेड़ों की गोबर की घास की बौरों की बेल के फलों की
महक आएगी
या फटे चारखाने से डर डर जाएगी।

                                  (1993)