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"मम उरज प्रान्त पर शांत बाल सा रख कपोल थे किए शयन/ प्रेम नारायण 'पंकिल'" के अवतरणों में अंतर

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सुधि करो प्राण कहते थे तुम क्यों बात-बात में हंसती हो
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मम उरज प्रान्त पर शांत बाल सा रख कपोल थे किए शयन
किस कलुषित कंचन को मेरे निज हास्य-निकष पर कसती हो
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सहलाती मसृण पाणि कुंतल अर्धोन्मीलित जलजाभ नयन
तुम होड़ लगा प्रिया उपवन की सुरभित कलियाँ चुन लेते थे।
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कहती थी "प्राण! काल कवलित हो जे न प्रणय मिलन घातें।
सखियों से होती मदन-रहस-बातें चुपके सुन लेते थे
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निस्पंद शून्य में खो न जाँय ये रस-रभस-कातर रातें
सहलाते थे मृदु करतल से रख उर पर मेरे मृदुल चरण
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वर्जन की वे अंगुलियाँ आज भी मेरे अधर दबा जातीं
प्रिय-पाणि-पार्श्व से झुका स्कंध रख देते आनन पर आनन ।
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वह छवि न भूलती धरे चिबुक नभ-ध्रुव-अरुंधती दिखलाती।
धंस डूब मरे हा ! जाय कहाँ बावरिया बरसाने वाली -
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लीला सहचर ! सुधि लो विकला बावरिया बरसाने वाली -
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली॥ ३१॥
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क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥२९॥
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20:25, 24 जनवरी 2009 के समय का अवतरण

 
मम उरज प्रान्त पर शांत बाल सा रख कपोल थे किए शयन ।
सहलाती मसृण पाणि कुंतल अर्धोन्मीलित जलजाभ नयन ।
कहती थी "प्राण! काल कवलित हो जे न प्रणय मिलन घातें।
निस्पंद शून्य में खो न जाँय ये रस-रभस-कातर रातें ।
वर्जन की वे अंगुलियाँ आज भी मेरे अधर दबा जातीं ।
वह छवि न भूलती धरे चिबुक नभ-ध्रुव-अरुंधती दिखलाती।
लीला सहचर ! सुधि लो विकला बावरिया बरसाने वाली -
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥२९॥