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'''राग बिलावल'''  आजु महामङ्गल कोसलपुर सुनि नृपके सुत चारि भए | सदन-सदन सोहिलो सोहावनो, नभ अरु नगर-निसान हए || सजि-सजि जान अमर-किन्नर-मुनि जानि समय-सम गान ठए | नाचहिं नभ अपसरा मुदित मन, पुनि-पुनि बरषहिं सुमन-चए || अति सुख बेगि बोलि गुरु भूसुर भूपति भीतर भवन गए | जातकरम करि कनक, बसन, मनि भूषित सुरभि-समूह दए || दल-फल-फूल, दूब-दधि-रोचन, जुबतिन्ह भरि-भरि थार लए | गावत चलीं भीर भै बीथिन्ह, बन्दिन्ह बाँकुरे बिरद बए || कनक-कलस, चामर-पताक-धुज, जहँ तहँ बन्दनवार नए | भरहिं अबीर, अरगजा छिरकहिं, सकल लोक एक रङ्ग रए || उमगि चल्यौ आनन्द लोक तिहुँ, देत सबनि मन्दिर रितए | तुलसिदास पुनि भरेइ देखियत, रामकृपा चितवनि चितए || '''जैतश्री'''  गावैं बिबुध बिमल बर बानी | भुवन-कोटि-कल्यान-कन्द जो, जायो पूत कौसिला रानी || मास, पाख, तिति, बार, नखत, ग्रह, जोग, लगन सुभ ठानी | जल-थल-गगन प्रसन्न साधु-मन, दस दिसि हिय हुलसानी || बरषत सुमन, बधाव नगर-नभ, हरष न जात बखानी | ज्यों हुलास रनिवास नरेसहि, त्यों जनपद रजधानी || अमर, नाग, मुनि, मनुज सपरिजन बिगतबिषाद-गलानी | मिलेहि माँझ रावन रजनीचर लङ्क सङ्क अकुलानी || देव-पितर, गुरु-बिप्र पूजि नृप दिये दान रुचि जानी | मुनि-बनिता, पुरनारि, सुआसिनि सहस भाँति सनमानी || पाइ अघाइ असीसत निकसत जाचक-जन भए दानी | "यों प्रसन्न कैकयी सुमित्रहि होउ महेस-भवानी || दिन दूसरे भूप-भामिनि दोउ भईं सुमङ्गल-खानी | भयो सोहिलो सोहिले मो जनु सृष्टि सोहिले-सानी || गावत-नाचत, मो मन भावत, सुख सों अवध अधिकानी | देत-लेत, पहिरत-पहिरावत प्रजा प्रमोद-अघानी || गान-निसान-कुलाहल-कौतुक देखत दुनी सिहानी | हरि बिरञ्चि-हर-पुर सोभा कुलि कोसलपुरी लोभानी || आनँद-अवनि, राजरानी सब माँगहु कोखि जुड़ानी | आसिष दै दै सराहहिं सादर उमा-रमा-ब्रह्मानी || बिभव-बिलास-बाढ़ि दसरथकी देखि न जिनहिं सोहानी | कीरति, कुसल, भूति, जय, ऋधि-सिधि तिन्हपर सबै कोहानी || छठी-बारहौं लोक-बेद-बिधि करि सुबिधान बिधानी | राम-लषन-रिपुदवन-भरत धरे नाम ललित गुर ग्यानी || सुकृत-सुमन तिल-मोद बासि बिधि जतन-जन्त्र भरि घानी | सुख-सनेह सब दिये दसरथहि खरि खलेल थिर-थानी || अनुदिन उदय-उछाह, उमग जग, घर-घर अवध कहानी | तुलसी राम-जनम-जस गावत सो समाज उर आनी || '''राग केदारा'''  घर-घर अवध बधावने मङ्गल-साज-समाज | सगुन सोहावने मुदित-मन कर सब निज-निज काज || निज काज सजत सँवारि पुर-नर-नारि रचना अनगनी | गृह, अजिर, अटनि, बजार, बीथिन्ह चारु चौकैं बिधि घनी || चामर, पताक, बितान, तोरन, कलस, दीपावलि बनी | सुख-सुकृत-सोभामय पुरी बिधि सुमति जननी जनु जनी || चैत चतुरदसि चाँदनी, अमल उदित निसिराज | उडुगन अवलि प्रकासहीं, उमगत आनँद आज || आनन्द उमगत आजु, बिबुध बिमान बिपुल बनाइकै | गावत, बजावत, नटत, हरषत, सुमन बरषत आइकै || नर निरखि नभ, सुर पेखि पुरछबि परसपर सचु पाइकै | रघुराज-साज सराहि लोचन-लाहु लेत अघाइकै || जागिय राम छठी सजनि रजनी रुचिर निहारि | मङ्गल-मोद-मढ़ी मुरति नृपके बालक चारि || मूरति मनोहर चारि बिरचि बिरञ्चि परमारथमई | अनुरुप भूपति जानि पूजन-जोग बिधि सङ्कर दई || तिन्हकी छठी मञ्जुलमठी, जग सरस जिन्हकी सरसई | किए नीन्द-भामिनि जागरन, अभिरामिनी जामिनि भई || सेवक सजग भए समय-साधन सचिव सुजान | मुनिबर सिखये लौकिकौ बैदिक बिबिध बिधान || बैदिक बिधान अनेक लौकिक आचरत सुनि जानिकै | बलिदान-पूजा मूलिकामनि साधि राखी आनिकै || जे देव-देवी सेइयत हित लागि चित सनमानिकै | ते जन्त्र-मन्त्र सिखाइ राखत सबनिसों पहिचानिकै || सकल सुआसिनि, गुरजन, पुरजन, पाहुन लोग | बिबुध-बिलासिनि, सुर-मुनि, जाचक, जो जेहि जोग || जेहि जोग जे तेहि भाँति ते पहिराइ परिपूरन किये | जय कहत, देत असीस, तुलसीदास ज्यों हुलसत हिये || ज्यों आजु कालिहु परहुँ जागन होहिङ्गे, नेवते दिये | ते धन्य पुन्य-पयोधि जे तेहि समै सुख-जीवन जिये || भूपति-भाग बली सुर-बर नाग सराहि सिहाहिं | तिय-बरबेष अली रमा सिधि अनिमादि कमाहिं || अनिमादि, सारद, सैलनन्दिनि बाल लालहि पालहीं | भरि जनम जे पाए न, ते परितोष उमा-रमा लहीं || निज लोक बिसरे लोकपति, घरकी न चरचा चालहीं | तुलसी तपत तिहु ताप जग, जनु प्रभुछठी-छाया लहीं || '''नामकरण'''  '''राग जैतश्री''' बाजत अवध गहागहे अनन्द-बधाए | नामकरन रघुबरनिके नृप सुदिन सोधाए || पाय रजायसु रायको ऋषिराज बोलाए | सिष्य-सचिव-सेवक-सखा सादर सिर नाए || साधु सुमति समरथ सबै सानन्द सिखाए | जल, दल, फल, मनि-मूलिका, कुलि काज लिखाए || गनप-गौरि-हर पूजिकै गोवृन्द दुहाए | घर-घर मुद मङ्गल महा गुन-गान सुहाए || तुरत मुदित जहँ तहँ चले मनके भए भाए | सुरपति-सासनु घन मनो मारुत मिलि धाए || गृह, आँगन, चौहट, गली, बाजार बनाए | कलस, चँवर, तोरन, धुजा, सुबितान तनाए || चित्र चारु चौकैं रचीं, लिखि नाम जनाए | भरि-भरि सरवर-बापिका अरगजा सनाए || नर-नारिन्ह पल चारिमें सब साज सजाए | दसरथ-पुर छबि आपनी सुरनगर लजाए || बिबुध बिमान बनाइकै आनन्दित आए | हरषि सुमन बरसन लगे, गए धन जनु पाए || बरे बिप्र चहुँ बेदके, रबिकुल-गुर ग्यानी | आपु बसिष्ठ अथरबणी, महिमा जग जानी || लोक-रीति बिधि बेदकी करि कह्यो सुबानी- "सिसु-समेत बेगि बोलिए कौसल्या रानी || सुनत सुआसिनि लै चलीं गावत बड़भागीं | उमा-रमा, सारद-सची लखि सुनि अनुरागीं || निज-निज रुचि बेष बिरचिकै हिलि-मिलि सङ्ग लागीं | तेहि अवसर तिहु लोककी सुदसा जनु जागीं || चारु चौक बैठत भई भूप-भामिनी सोहैं | गोद मोद-मूरति, लिए, सुकृती जन जोहैं || सुख-सुखमा, कौतुक कला देखि-सुनि मुनि मोहैं | सो समाज कहैं बरनिकै, ऐसे कबि को हैं ? || लगे पढ़न रच्छा-ऋचा ऋषिराज बिराजे | गगन सुमन-झरि, जय-जय, बहु बाजन बाजे || भए अमङ्गल लङ्कमें, सङ्क-सङ्कट गाजे | भुवन चारिदसके बड़े दुख-दारिद भाजे || बाल बिलोकि अथरबणी हँसि हरहि जनायो | सुभको सुभ, मोद मोदको, राम नाम सुनायो || आलबाल कल कौसिला, दल बरन सोहायो | कन्द सकल आनन्दको जनु अंकुर आयो || जोहि, जानि, जपि जोरिकै करपुट सिर राखे | "जय जय जय करुनानिधे! सादर सुर भाषे || "सत्यसन्ध ! साँचे सदा जे आखर आषे | प्रनतपाल ! पाए सही, जे फल अभिलाषे || भूमिदेव देव देखिकै नरदेव सुखारी | बोलि सचिव सेवक सखा पटधारि भँडारी || देहु जाहि जोइ चाहिए सनमानि सँभारी | लगे देन हिय हरषिकै हेरि-हेरि हँकारी || राम-निछावरि लेनको हठि होत भिखारी | बहुरि देत तेहि देखिए मानहुँ धनधारी || भरत लषन रिपुदवनहूँ धरे नाम बिचारी | फलदायक फल चारिके दसरथ-सुत चारी || भए भूप बालकनिके नाम निरुपम नीके | सबै सोच-सङ्कट मिटे तबतें पुर-तीके || सुफल मनोरथ बिधि किए सब बिधि सबहीके | अब होइहै गाए सुने सबके तुलसीके || 
'''दुलार'''
'''राग बिलावल'''
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