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"एक अंतर्कथा / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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पथ पर ही मेरे पैर थिरक उठते
 
पथ पर ही मेरे पैर थिरक उठते
 
कोमल लय में।
 
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मैं साश्रुनयन, रोमांचित तन; प्रकाशमय मन।
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उपभाएँ उद्धाटित-वक्षा मृदु स्नेहमुखी
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एक-टक देखतीं मुझको –
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प्रियतर मुसकातीं...
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मूल्यांकन करते एक-दूसरे का
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हम एक-दूसरे को सँवारते जाते हैं
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वे जगत्-समीक्षा करते-से
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मेरे प्रतीक रूपक सपने फैलाते हैं
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आगामी के।
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दरवाज़े दुनिया के सारे खुल जाते हैं
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प्यार के साँवले किस्सों की उदास गलियाँ
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गंभीर करूण मुस्कराहट में
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अपना उर का सब भेद खोलती हैं।
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अनजाने हाथ मित्रता के
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मेरे हाथों में पहुँच मित्रता भरते हैं
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मैं अपनों से घिर उठता हूँ
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मैं विचरण करता-सा हूँ एक फ़ैंटेसी में
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यह निश्चित है कि फ़ैंटेसी कल वास्तव होगी।
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मेरा तो सिर फिर जाता है
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औ' मस्तक में
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ब्रह्मांड दीप्ति-सी घिर उठती
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रवि-किरण-बिंदु आँखों में स्थिर हो जाता है।
  
 
क्रमशः...
 
क्रमशः...
 
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22:14, 28 जनवरी 2009 का अवतरण

अग्नि के काष्ठ
खोजती माँ,
बीनती नित्य सूखे डंठल
सूखी टहनी, रुखी डालें
घूमती सभ्यता के जंगल
वह मेरी माँ
खोजती अग्नि के अधिष्ठान

मुझमें दुविधा,
पर, माँ की आज्ञा से समिधा
एकत्र कर रहा हूँ
मैं हर टहनी में डंठल में
एक-एक स्वप्न देखता हुआ
पहचान रहा प्रत्येक
जतन से जमा रहा
टोकरी उठा, मैं चला जा रहा हूँ

टोकरी उठाना...चलन नहीं
वह फ़ैशन के विपरीत –
इसलिए निगाहें बचा-बचा
आड़े-तिरछे चलता हूँ मैं
संकुचित और भयभीत

अजीब सी टोकरी
कि उसमें प्राणवान् माया
गहरी कीमिया
सहज उभरी फैली सँवरी
डंठल-टहनी की कठिन साँवली रेखाएँ
आपस में लग यों गुंथ जातीं
मानो अक्षर नवसाक्षर खेतिहर के-से
वे बेढब वाक्य फुसफुसाते
टोकरी विवर में से स्वर आते दबे-दबे
मानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमे
अथवा मनोज्ञ शत रंग-बिरंगी बिहंग गाते हों

आगे-आगे माँ
पीछे मैं;
उसकी दृढ़ पीठ ज़रा सी झुक
चुन लेती डंठल पल भर रुक
वह जीर्ण-नील-वस्त्रा
है अस्थि-दृढ़ा
गतिमती व्यक्तिमत्ता
कर रहा अध्ययन मैं उसकी मज़बूती का
उसके जीवन से लगे हुए
वर्षा-गर्मी-सर्दी और क्षुधा-तृषा के वर्षों से
मैं पूछ रहा –
टोकरी-विवर में पक्षी-स्वर
कलरव क्यों है
माँ कहती –
'सूखी टहनी की अग्नि क्षमता
ही गाती है पक्षी स्वर में
वह बंद आग है खुलने को।'
मैं पाता हूँ
कोमल कोयल अतिशय प्राचीन
व अति नवीन
स्वर में पुकारती है मुझको
टोकरी-विवर के भीतर से।
पथ पर ही मेरे पैर थिरक उठते
कोमल लय में।
मैं साश्रुनयन, रोमांचित तन; प्रकाशमय मन।
उपभाएँ उद्धाटित-वक्षा मृदु स्नेहमुखी
एक-टक देखतीं मुझको –
प्रियतर मुसकातीं...
मूल्यांकन करते एक-दूसरे का
हम एक-दूसरे को सँवारते जाते हैं
वे जगत्-समीक्षा करते-से
मेरे प्रतीक रूपक सपने फैलाते हैं
आगामी के।
दरवाज़े दुनिया के सारे खुल जाते हैं
प्यार के साँवले किस्सों की उदास गलियाँ
गंभीर करूण मुस्कराहट में
अपना उर का सब भेद खोलती हैं।
अनजाने हाथ मित्रता के
मेरे हाथों में पहुँच मित्रता भरते हैं
मैं अपनों से घिर उठता हूँ
मैं विचरण करता-सा हूँ एक फ़ैंटेसी में
यह निश्चित है कि फ़ैंटेसी कल वास्तव होगी।
मेरा तो सिर फिर जाता है
औ' मस्तक में
ब्रह्मांड दीप्ति-सी घिर उठती
रवि-किरण-बिंदु आँखों में स्थिर हो जाता है।

क्रमशः...