भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अंजार में भूकम्प / सरोज परमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह=समय से भिड़ने के लिये / सरोज प...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
18:00, 29 जनवरी 2009 का अवतरण
घिर कर बैठने के लिए
बनाए थे जो घर
धो-पोंछ चमकाए ,सजाए थे जो घर
भड़भड़ा कर गिरे,धँसे-बिखरे
दब गईं इनमें ख़ुशियाँ, उदासियाँ
कहकहे, संताप, दुख-सुख
सब खो गया घर खो गया.
वर्तमान अतीत हो गया
इन आँगनों में चुगती थीं चिड़ियाँ
झूलती थीं लड़कियाँ
जश्न मनाते थे कबूतर
टूटी दीवारों पर चस्पाँ हैं पोस्टर
गुजरात पर भूकम्प का कहर
इस मलबे में दबी होगी
कोई रोटी पकाती माँ
मुन्ना नहलाती माँ
आरती सजाती दादी
परेड करते बच्चे
लाठी टेक खाँसते दादा
उजड़ा-सा अंजार
शानदार घर बेज़ार
धूल-पत्थर से भरे हुए
तमाम दुनिया बेख़्वाब
अपनों की खोदते लाशें
छाले-छाले हुए हाथ.