भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"इस ख़ौफ़नाक दौर में / सरोज परमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
<poem> | <poem> | ||
अक्सर लोग फूलों का गीत गुनगुनाते | अक्सर लोग फूलों का गीत गुनगुनाते | ||
− | + | बाँट जाते हैं पैने ख़ंजर | |
थपथपाते हैं मेज़ें | थपथपाते हैं मेज़ें | ||
पीटते हैं थालियाँ | पीटते हैं थालियाँ |
08:24, 30 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
अक्सर लोग फूलों का गीत गुनगुनाते
बाँट जाते हैं पैने ख़ंजर
थपथपाते हैं मेज़ें
पीटते हैं थालियाँ
खीसें निपोरते
लगाते हैं कहीं सेंध भी.
ब्रीफ़केसों में बन्द
अस्मत, किस्मत, ताक़त
दलालों के रगड़े में
पूरा समाज.
बातें हैं समझौते की
फ़स्लें उगाते लाशों की
मिसाइल की नोक पर
बाँध इन्सानियत को
उगलवाते हैं अमन-चैन,सुकून
इस दुरभिसन्धियों के ख़ौफ़नाक दौर में
कहाँ है मुकम्मल सुख?
तुम्हीं बताओ
किन भरोसेमन्द हाथों में
सौंप दूँ अपनी नन्हीं बुलबुल.