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पंक्ति 39: |
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| मानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमे | | मानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमे |
| अथवा मनोज्ञ शत रंग-बिरंगी बिहंग गाते हों | | अथवा मनोज्ञ शत रंग-बिरंगी बिहंग गाते हों |
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− | आगे-आगे माँ
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− | पीछे मैं;
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− | उसकी दृढ़ पीठ ज़रा सी झुक
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− | चुन लेती डंठल पल भर रुक
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− | वह जीर्ण-नील-वस्त्रा
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− | है अस्थि-दृढ़ा
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− | गतिमती व्यक्तिमत्ता
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− | कर रहा अध्ययन मैं उसकी मज़बूती का
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− | उसके जीवन से लगे हुए
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− | वर्षा-गर्मी-सर्दी और क्षुधा-तृषा के वर्षों से
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− | मैं पूछ रहा –
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− | टोकरी-विवर में पक्षी-स्वर
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− | कलरव क्यों है
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− | माँ कहती –
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− | 'सूखी टहनी की अग्नि क्षमता
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− | ही गाती है पक्षी स्वर में
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− | वह बंद आग है खुलने को।'
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− | मैं पाता हूँ
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− | कोमल कोयल अतिशय प्राचीन
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− | व अति नवीन
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− | स्वर में पुकारती है मुझको
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− | टोकरी-विवर के भीतर से।
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− | पथ पर ही मेरे पैर थिरक उठते
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− | कोमल लय में।
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− | मैं साश्रुनयन, रोमांचित तन; प्रकाशमय मन।
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− | उपभाएँ उद्धाटित-वक्षा मृदु स्नेहमुखी
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− | एक-टक देखतीं मुझको –
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− | प्रियतर मुसकातीं...
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− | मूल्यांकन करते एक-दूसरे का
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− | हम एक-दूसरे को सँवारते जाते हैं
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− | वे जगत्-समीक्षा करते-से
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− | मेरे प्रतीक रूपक सपने फैलाते हैं
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− | आगामी के।
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− | दरवाज़े दुनिया के सारे खुल जाते हैं
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− | प्यार के साँवले किस्सों की उदास गलियाँ
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− | गंभीर करूण मुस्कराहट में
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− | अपना उर का सब भेद खोलती हैं।
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− | अनजाने हाथ मित्रता के
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− | मेरे हाथों में पहुँच मित्रता भरते हैं
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− | मैं अपनों से घिर उठता हूँ
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− | मैं विचरण करता-सा हूँ एक फ़ैंटेसी में
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− | यह निश्चित है कि फ़ैंटेसी कल वास्तव होगी।
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− | मेरा तो सिर फिर जाता है
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− | औ' मस्तक में
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− | ब्रह्मांड दीप्ति-सी घिर उठती
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− | रवि-किरण-बिंदु आँखों में स्थिर हो जाता है।
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− | सपने से जागकर पाता हूँ सामने वही
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− | बरगद के तने-सरीखी वह अत्यंत कठिन
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− | दृढ़ पीठ अग्रगायी माँ की
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− | युग-युग अनुभव का नेतृत्व
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− | आगे-आगे,
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− | मैं अनुगत हूँ।
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− | वह एक गिरस्तन आत्मा
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− | मेरी माँ
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− | मैं चिल्लाकर पूछता –
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− | कि यह सब क्या
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− | कि कौन सी माया यह।
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− | मुड़कर के मेरी ओर सहज मुसका
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− | वह कहती है –
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− | 'आधुनिक सभ्यता के वन में
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− | व्यक्तित्व-वृक्ष सुविधावादी।
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− | कोमल-कोमल टहनियाँ मर गईं अनुभव-मर्मों की
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− | यह निरुपयोग के फलस्वरूप हो गया।
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− | उनका विवेकसंगत प्रयोग हो सका नहीं
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− | कल्याणमयी करूणाएँ फेंकी गईं
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− | रास्ते पर कचरे-जैसी,
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− | मैं चीन्ह रही उनको।
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− | जो गहन अग्नि के अधिष्ठान
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− | हैं प्राणवान
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− | मैं बीन रही उनको
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− | देख तो
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− | उन्हें सभ्यताभिरूचिवश छोड़ा जाता है
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− | उनसे मुँह मोड़ा जाता है
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− | दम नहीं किसी में
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− | उनको दुर्दम करे
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− | अनलोपम स्वर्णिम करे।
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− | घर के बाहर आंगन में मैं सुलगाऊँगी
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− | दुनियाभर को उनका प्रकाश दिखलाऊँगी।'
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− | यह कह माँ मुसकाई,
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− | तब समझा
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− | हम दो
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− | क्यों
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− | भटका करते हैं, बेगानों की तरह, रास्तों पर।
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− | मिल नहीं किसी से पाते हैं
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− | अंतस्थ हमारे प्ररयितृ अनुभव
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− | जम नहीं किसी से पाते है हम
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− | फिट नहीं किसी से होते हैं
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− | मानो असंग की ओर यात्रा असंग की।
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− | वे लोग बहुत जो ऊपर-ऊपर चढ़ते हैं
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− | हम नीचे-नीचे गिरते हैं
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− | तब हम पाते वीथी सुसंगमय ऊष्मामय।
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− | हम हैं समाज की तलछट, केवल इसीलिए
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− | हमको सर्वाज्ज्वल परंपरा चाहिए।
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− | माँ परंपरा-निर्मिति के हित
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− | खोजती ज़िंदगी के कचरे में भी
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− | ज्ञानात्मक संवेदन
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− | पर, रखती उनका भार कठिन मेरे सिर पर
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− | अजीब अनुभव है
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− | सिर पर टोकरी-विवर में मानव-शिशु
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− | वह कोई सद्योजात
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− | मृदुल-कर्कश स्वर में
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− | रो रहा;
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− | सच. प्यार उमड़ आता उस पर
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− | पर, प्रतिपालन-दायित्व भार से घबराकर
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− | मैं तो विवेक खो रहा
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− | वह शिकायतों से भरा बाल-स्वर मँडराता
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− | प्रिय बालक दुर्भर, दुर्धर है – यह मैं विचारता, कतराता
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− | झखमार, झींक औ' प्यार गुँथ रहे आपस में
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− | वह सिर पर चढ़ रो रहा, नहीं मेरे बस में
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− | बढ़ रहा बोझ। वह मानव शिशु
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− | भारी-भारी हो रहा।
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− | वह कौन? कि सहसा प्रश्न कौंधता अंतर में –
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− | 'वह है मानव परंपरा'
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− | चिंघाड़ता हुआ उत्तर यह,
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− | 'सुन, कालिदास का कुमारसंभव वह।'
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− | मेरी आँखों में अश्रु और अभिमान
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− | किसी कारण
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− | अंतर के भीतर पिघलती हुई हिमालयी चट्टान
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− | किसी कारण;
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− | तब एक क्षण भर
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− | मेरे कंधों पर खड़ा हुआ है देव एक दुर्धर
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− | थामता नभस दो हाथों से
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− | भारान्वित मेरी पीठ बहुत झुकती जाती
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− | वह कुचल रही है मुझे देव-आकृति।
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− | है दर्द बहुत रीढ़ में
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− | पसलियाँ पिरा रहीं
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− | पाँव में जम रहा खून
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− | द्रोह करता है मन
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− | मैं जनमा जब से इस साले ने कष्ट दिया
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− | उल्लू का पट्ठा कंधे पर है खड़ा हुआ।
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− | कि इतने में
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− | गंभीर मुझे आदेश –
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− | कि बिल्कुल जमे रहो।
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− | मैं अपने कंधे क्रमशः सीधे करता हूँ
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− | तन गई पीठ
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− | और स्कंध नभोगामी होते
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− | इतने ऊँचे हो जाते हैं,
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− | मैं एकाकार हो गया-सा देवाकृति से।
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− | नभ मेरे हाथों पर आता
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− | मैं उल्का-फूल फेंकता मधुर चंद्रमुख पर
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− | मेरी छाया गिरती है दूर नेब्यूला में।
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− | बस, तभी तलब लगती बीड़ी पीने की।
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− | मैं पूर्वाकृति में आ जाता,
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− | बस, चाय एक कप मुझे गरम कोई दे दे
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− | ऐसी-तैसी उस गौरव की
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− | जो छीन चले मेरी सुविधा
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− | मित्रों से गप करने का मज़ा और ही है।
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− | ये गरम चिलचिलाती सड़कें
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− | सौ बरस जिएँ
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− | मैं परिभ्रमण करता जाऊँगा जीवन भर
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− | मैं जिप्सी हूँ।
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− | दिल को ठोकर
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− | वह विकृत आईना मन का सहसा टूट गया
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− | जिसमें या तो चेहरा दिखता था बहुत बड़ा
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− | फूला-फूला
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− | या अकस्मात् विकलांग व छोटा-छोटा-सा
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− | सिट्टी गुम है,
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− | नाड़ी ठंडी।
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− | देखता हूँ कि माँ व्यंग्यस्मित मुस्करा रही
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− | डाँटती हुई कहती है वह –
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− | 'तब देव बिना अब जिप्सी भी,
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− | केवल जीवन-कर्तव्यों का
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− | पालन न हो सके इसीलिए
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− | निज को बहकाया करता है।
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− | चल इधर, बीन रूखी टहनी
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− | सूखी डालें,
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− | भूरे डंठल,
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− | पहचान अग्नि के अधिष्ठान
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− | जा पहुँचा स्वयं के मित्रों में
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− | कर ग्रहण अग्नि-भिक्षा
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− | लोगों से पड़ौसियों से मिल।'
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− | चिलचिला रही हैं सड़कें व धूल है चेहरे पर
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− | चिलचिला रहा बेशर्म दलिद्दर भीतर का
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− | पर, सेमल का ऊँचा-ऊँचा वह पेड़ रूचिर
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− | संपन्न लाल फूलों को लेकर खड़ा हुआ
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− | रक्तिमा प्रकाशित करता-सा
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− | वह गहन प्रेम
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− | उसका कपास रेशम-कोमल।
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− | मैं उसे देख जीवन पर मुग्ध हो रहा हूँ!
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