"कवि सम्मेलन, टुकड़े-टुकड़े हूटिंग / शैल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
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"किस लोक गीत से मारी।" | "किस लोक गीत से मारी।" | ||
कवि बोला-"हमारी है हमारी | कवि बोला-"हमारी है हमारी | ||
− | विश्वास ना हो तो | + | विश्वास ना हो तो संचालक से पूछ लो।" |
+ | संचालक बोला-"गाओ या मत गाओ | ||
+ | मैं झूठ नहीं बोलता | ||
+ | गवाही मुझसे मत दिलवाओ।" | ||
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+ | संचालक ने दूसरे कवि से कहा- | ||
+ | "गोपालजी आप ही आइए | ||
+ | ये श्रोता रूपी कैरव | ||
+ | कविता को नंगा कर रहे हैं | ||
+ | लाज बचाइए।" | ||
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+ | गोपालजी जैसे ही शुरू हुए- | ||
+ | "तू ही साक़ी | ||
+ | तू ही बोतल | ||
+ | तू ही पैमाना" | ||
+ | किसी ने पूछा-"गुरू! | ||
+ | ये कविसम्मेलन है या मैख़ाना।" | ||
+ | कवि बोला-"मैं खानदानी कवि हूँ | ||
+ | मुझसे मत टकराना" | ||
+ | आवाज़ आई-"क्या आप के बाप भी कवि थे।" | ||
+ | कवि बोला-"जी हाँ, थे | ||
+ | मगर आप ये क्यों पूछ रहे हैं।" | ||
+ | उत्तर मिला-"हम आपकी बेवक़ूफ़ी की जड़ ढूढ रहे हैं।" | ||
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+ | अबकी बार- | ||
+ | एक आशुकवि को उठाया गया- | ||
+ | उसने कहा-"आपने हमें कई बार सुना है।" | ||
+ | आवाज़ आई-"जी हाँ आपकी बकवास सुनकर | ||
+ | कई बार सिर धुना है" | ||
+ | कवि बोला-"संभलकर बोलना | ||
+ | हमारे पास कलेज़ा है | ||
+ | उपर से नीचे तक भेजा ही भेजा है।" | ||
+ | किसी ने पूछा-"आपको किसने भेजा है?" | ||
+ | कवि बोला-"हम बनारस में रहते हैं | ||
+ | रस हमारे यहाँ ही बनते है।" | ||
+ | उत्तर मिला-"यहाँ के श्रोता मुश्किल से बनते है | ||
+ | बकवास नहीं कविता सुनते है।" | ||
+ | कवि बोला-"कविता तो कविता | ||
+ | हम अख़बार तक को गा कर पढ़ सकते हैं | ||
+ | मंच पर ही नहीं | ||
+ | छाती पर भी चढ़ सकते है।" | ||
+ | आवाज़ आई -"यहा से दरासिंग भी | ||
+ | आड़ासिंग होकर गए है।" | ||
+ | कवि बोला-"हम दारासिंग नहीं हैं | ||
+ | दुधारासिंग हैं | ||
+ | दोनो तरफ धार रखते हैं | ||
+ | कवि होकर भी कार रखते हैं।" | ||
+ | संचालक बोला-"बेकार मुंह मत लड़ाओ | ||
+ | कविता हो तो सुनाओ।" | ||
+ | कवि ने संचालक को पलटकर कहा- | ||
+ | "अच्छा! हमारी बिल्ली हम से ही म्याऊँ | ||
+ | कविता क्या होती है सुनाऊँ |
12:00, 1 फ़रवरी 2009 का अवतरण
एक कवि सम्मेलन में
ऐसे श्रोता मिल गए
जिनकी कृपा से
कवियों के कलेजे हिल गए
एक अधेड़ कवि ने जैसे ही गाया-
" उनका चेहरा गुलाब क्या कहिए।"
सामने से आवाज़ आई-
" लेके आए जुलाब क्या कहिए।"
और कवि जी
जुलाब का नाम सुनते ही
अपना पेट पकड़कर बैठ गए
दूसरे कवि ने माइक पर आते ही
भूमिका बनाई-
"न तो कवि हूँ
न कविता बनाता हूँ।"
आवाज़ आई-
"तो क्या बेवक़ूफ़ बनाता है भाई।"
कवि को पसीना आ गया
और वह घबराहट में
किसी और का गीत गा गया-
"जब-जब घिरे बदरिया कारी
नैनन नीर झरे।"
आवाज़ आई-"तुम भी कहाँ जाकर मरे
यह कविता तो
लखनऊ वाली कवयित्री की है।"
कवि बोला-"हमने ही उसे दी है।"
आवाज़ आई-"पहले तो पल्ला पकड़ते हो
और जब हाथ से निकल जाती है
तो हल्ला करते हो।"
संयोजक ने संचालक से कहा-
"कविता मत सुनवाओ
जिसके पास गला है
उसको बुलवाओ।"
गले वाला कवि मुस्कुराया
और जैसे ही उसने नमूना दिखाया-
चटक म्हारा चम्पा आई रे रूत थारी
कोई श्रोता चिल्लाया-
"किस लोक गीत से मारी।"
कवि बोला-"हमारी है हमारी
विश्वास ना हो तो संचालक से पूछ लो।"
संचालक बोला-"गाओ या मत गाओ
मैं झूठ नहीं बोलता
गवाही मुझसे मत दिलवाओ।"
संचालक ने दूसरे कवि से कहा-
"गोपालजी आप ही आइए
ये श्रोता रूपी कैरव
कविता को नंगा कर रहे हैं
लाज बचाइए।"
गोपालजी जैसे ही शुरू हुए-
"तू ही साक़ी
तू ही बोतल
तू ही पैमाना"
किसी ने पूछा-"गुरू!
ये कविसम्मेलन है या मैख़ाना।"
कवि बोला-"मैं खानदानी कवि हूँ
मुझसे मत टकराना"
आवाज़ आई-"क्या आप के बाप भी कवि थे।"
कवि बोला-"जी हाँ, थे
मगर आप ये क्यों पूछ रहे हैं।"
उत्तर मिला-"हम आपकी बेवक़ूफ़ी की जड़ ढूढ रहे हैं।"
अबकी बार-
एक आशुकवि को उठाया गया-
उसने कहा-"आपने हमें कई बार सुना है।"
आवाज़ आई-"जी हाँ आपकी बकवास सुनकर
कई बार सिर धुना है"
कवि बोला-"संभलकर बोलना
हमारे पास कलेज़ा है
उपर से नीचे तक भेजा ही भेजा है।"
किसी ने पूछा-"आपको किसने भेजा है?"
कवि बोला-"हम बनारस में रहते हैं
रस हमारे यहाँ ही बनते है।"
उत्तर मिला-"यहाँ के श्रोता मुश्किल से बनते है
बकवास नहीं कविता सुनते है।"
कवि बोला-"कविता तो कविता
हम अख़बार तक को गा कर पढ़ सकते हैं
मंच पर ही नहीं
छाती पर भी चढ़ सकते है।"
आवाज़ आई -"यहा से दरासिंग भी
आड़ासिंग होकर गए है।"
कवि बोला-"हम दारासिंग नहीं हैं
दुधारासिंग हैं
दोनो तरफ धार रखते हैं
कवि होकर भी कार रखते हैं।"
संचालक बोला-"बेकार मुंह मत लड़ाओ
कविता हो तो सुनाओ।"
कवि ने संचालक को पलटकर कहा-
"अच्छा! हमारी बिल्ली हम से ही म्याऊँ
कविता क्या होती है सुनाऊँ