"वैराग्य-संदीपनी / भाग २ / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
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तन करि मन करि बचन करि, काहू दुखत नाहिं,
तुलसी ऐसे संत जन रामरूप जग माहिं [२३]
मुख दीखत पातक हरै, परसत करम बिलाहिं
बचन सुनत मन मोह्गत, पूरब भाग मिलाहिं [२४]
अति कोमल अरु बिमल रूचि, मानस में मल नाहिं,
तुलसी रत मन हुई रहे, अपने साहिब मांहि [२५]
जाके मन ते उठि गई, तिल-तिल तृष्णा चाहि,
मनसा बाचा कर्मना, तुलसी बंदत ताहि [२६]
कंचन काँचही सम गनै, कामिनी काष्ठ पषान,
तुलसी ऐसे संतजन, पृथ्वी ब्रह्म समान [२७]
कंचन को मृतिका करि मानत,
कामिनी काष्ठ सिला पहिचानत।
तुलसी भूलि गयो रस एहा,
ते जन प्रगट राम की देहा॥ [२८] [चौपाई]
आकिंचन इन्द्रीदमन, रमन राम एक तार,
तुलसी ऐसे संत जन, बिरले या संसार [२९]
अहंबाद 'मैं' 'तैं' नहीं, दुष्ट संग नहिं कोय,
दुःख ते दुःख नहिं ऊपजे, सुख तें सुख नहिं होय [३०]
सम कंचन कान्चै गिनत, सत्रु मित्र सम दोए,
तुलसी या संसार में, कहत संत जन सोए [३१]
बिरले बिरले पाएये, माया त्यागी संत,
तुलसी कामी कुटिल कलि, केकी केक अनंत [३२]
मैं तैं मेट्यो मोह तम, उग्यो आत्मा भानु,
संत राज सो जानिए, तुलसी या सहिदानु [३३]
संत - महिमा - वर्णन
को बरनै सुख एक, तुलसी महिमा संत की,
जिन्ह के बिमल बिबेक, सेस महेस न कही सकत [३४] [सोरठा]
माहि पत्री करी सिन्धु मसि, तरु लेखनी बनाए,
तुलसी गनपत सों तदपि, महिमा लिखी न जाए [३५]
धन्य धन्य माता पिता,धन्य पुत्र बार सोय,
तुलसी जो रामहिं भजे, जैसेहूँ कैसेहूँ कोय [३६]
तुलसी जाके बदन ते, धोखेहूँ निकसत राम,
ताके पग की पगतरी, मेरे तन को चाम [३७]
तुलसी भगत सुपच भलौ, भजै रैन दिन राम.
ऊँचो कुल केहि काम को, जहाँ न हरी को नाम [३८]
अति ऊँचे भू धरनि पर, भुजगन के अस्थान,
तुलसी अति नीचे सुखद, ऊख अन्न अरु पान [३९]
अति अनन्य जो हरि को दासा,
रतै नाम निसिदिन प्रति स्वासा।
तुलसी तेहि समान नहीं कोई,
हम नीकें देखा सब कोई॥ [४०] [चौपाई]
जदपि साधु सबही बिधि हीना,
तद्यपि समता के न कुलीना।
यह दिन रैन नाम उच्चरै,
वह नित मान अगिनी मंह जरै॥ [४१] [चौपाई]