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− | |रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध | + | |रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध |
− | }} | + | }} |
| + | [[Category:लम्बी कविता]] |
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− | <poem>
| + | * [[कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] |
− | कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं – | + | * [[कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] |
− | 'सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम!
| + | * [[कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] |
− | तरक़्क़ी के गोल-गोल
| + | * [[कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध]] |
− | घुमावदार चक्करदार
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− | ऊपर बढ़ते हुए ज़ीने पर चढ़ने की
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− | चढ़ते ही जाने की
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− | उन्नति के बारे में
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− | तुम्हारी ही ज़हरीली
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− | उपेक्षा के कारण, निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!!'
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− | कटी-कमर भीतों के पास खड़े ढेरों और
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− | ढूहों में खड़े हुए खंभों के खँडहर में
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− | बियाबान फैली है पूनों की चाँदनी,
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− | आँगनों के पुराने-धुराने एक पेड़ पर।
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− | अजीब-सी होती है, चारों ओर
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− | वीरान-वीरान महक सुनसानों की
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− | पूनों की चाँदनी की धूलि की धुंध में।
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− | वैसे ही लगता है, महसूस यह होता है
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− | 'उन्नति' के क्षेत्रों में, 'प्रतिष्ठा' के क्षेत्रों में
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− | मानव की छाती की, आत्मा की, प्राणी की
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− | सोंधी गंध
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− | कहीं नहीं, कहीं नहीं
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− | पूनों की चांदनी यह सही नहीं, सही नहीं;
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− | केवल मनुष्यहीन वीरान क्षेत्रों में
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− | निर्जन प्रसारों पर
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− | सिर्फ़ एक आँख से
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− | 'सफलता' की आँख से
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− | दुनिया को निहारती फैली है
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− | पूनों की चांदनी।
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− | सूखे हुए कुओं पर झुके हुए झाड़ों में
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− | बैठे हुए घुग्घुओं व चमगादड़ों के हित
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− | जंगल के सियारों और
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− | घनी-घनी छायाओं में छिपे हुए
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− | भूतों और प्रेतों तथा
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− | पिचाशों और बेतालों के लिए –
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− | मनुष्य के लिए नहीं – फैली यह
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− | सफलता की, भद्रता की,
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− | कीर्ति यश रेशम की पूनों की चांदनी।
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− | मुझको डर लगता है,
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− | मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मे
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− | घुग्घू या सियार या
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− | भूत नहीं कहीं बन जाऊँ।
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− | उनको डर लगता है
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− | आशंका होती है
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− | कि हम भी जब हुए भूत
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− | घुग्घू या सियार बने
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− | तो अभी तक यही व्यक्ति
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− | ज़िंदा क्यों?
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− | उसकी वह विक्षोभी सम्पीड़ित आत्मा फिर
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− | जीवित क्यों रहती है?
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− | मरकर जब भूत बने
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− | उसकी वह आत्मा पिशाच जब बन जाए
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− | तो नाचेंगे साथ-साथ सूखे हुए पथरीले झरनों के तीरों पर
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− | सफलता के चंद्र की छाया में अधीर हो।
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− | इसीलिए,
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− | इसीलिए,
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− | उनका और मेरा यह विरोध
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− | चिरंतन है, नित्य है, सनातन है।
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− | उनकी उस तथाकथित
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− | जीवन-सफलता के
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− | खपरैलों-छेदों से
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− | खिड़की की दरारों से
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− | आती जब किरणें हैं
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− | तो सज्जन वे, वे लोग
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− | अचंभित होकर, उन दरारों को, छेदों को
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− | बंद कर देते हैं;
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− | इसीलिए कि वे किरणें
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− | उनके लेखे ही आज
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− | कम्यूनिज़्म है...गुंडागर्दी है...विरोध है,
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− | जिसमें छिपी है कहीं
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− | मेरी बदमाशी भी।
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− | मैं पुकारकर कहता हूँ –
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− | 'सुनो, सुननेवालों।
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− | पशुओं के राज्य में जो बियाबान जंगल है
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− | उसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकाय
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− | बरगद एक विकराल।
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− | उसके विद्रूप शत
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− | शाखा-व्यूहों निहित
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− | पत्तों के घनीभूत जाले हैं, जाले हैं।
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− | तले में अंधेरा है, अंधेरा है घनघोर...
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− | वृक्ष के तने से चिपट
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− | बैठा है, खड़ा है कोई
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− | पिशाच एक ज़बर्दस्त मरी हुई आत्मा का,
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− | वह तो रखवाला है
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− | घुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का।
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− | और उस जंगल में, बरगद के महाभीम
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− | भयानक शरीर पर खिली हुई फैली है पूनों की चांदनी
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− | सफलता की, भद्रता की,
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− | श्रेय-प्रेय-सत्यं-शिवं-संस्कृति की
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− | खिलखिलाती चांदनी।
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− | अगर कहीं सचमुच तुम
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− | पहुँच ही वहाँ गए
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− | तो घुग्घू बन जाओगे।
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− | आदमी कभी भी फिर
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− | कहीं भी न मिलेगा तुम्हें।
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− | पशुओं के राज्य में
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− | जो पूनों की चांदनी है
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− | नहीं वह तुम्हारे लिए
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− | नहीं वह हमारे लिए।
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− | तुम्हारे पास, हमारे पास,
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− | सिर्फ़ एक चीज़ है –
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− | ईमान का डंडा है,
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− | बुद्धि का बल्लम है,
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− | अभय की गेती है
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− | हृदय की तगारी है – तसला है
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− | नए-नए बनाने के लिए भवन
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− | आत्मा के,
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− | मनुष्य के,
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− | हृदय की तगारी में ढोते हैं हमीं लोग
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− | जीवन की गीली और
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− | महकती हुई मिट्टी को।
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− | जीवन-मैदानों में
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− | लक्ष्य के शिखरों पर
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− | नए किले बनाने में
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− | व्यस्त हैं हमीं लोग
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− | हमारा समाज यह जुटा ही रहता है।
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− | पहाड़ी चट्टानों को
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− | चढ़ान पर चढ़ाते हुए
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− | हज़ारों भुजाओं से
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− | ढकेलते हुए कि जब
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− | पूरा शारीरिक ज़ोर
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− | फुफ्फुस की पूरी साँस
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− | छाती का पूरा दम
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− | लगाने के लक्षण-रूप
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− | चेहरे हमारे जब
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− | बिगड़ से जाते हैं –
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− | सूरज देख लेता है
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− | दिशाओं के कानों में कहता है –
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− | दुर्गों के शिखर से
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− | हमारे कंधे पर चढ़
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− | खड़े होने वाले ये
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− | दूरबीन लगा कर नहीं देखेंगे –
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− | कि मंगल में क्या-क्या है!!
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− | चंद्रलोक-छाया को मापकर
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− | वहाँ के पहाड़ों की उँचाई नहीं नापेंगे,
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− | वरन् स्वयं ही वे
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− | विचरण करेंगे इन नए-नए लोकों में,
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− | देश-काल-प्रकृति-सृष्टि-जेता ये।
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− | इसलिए अगर ये लोग
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− | सड़क-छाप जीवन की धूल-धूप
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− | मामूली रूप-रंग
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− | लिए हुए होने से
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− | तथाकथित 'सफलता' के
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− | खच्चरों व टट्टुओं के द्वारा यदि
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− | निरर्थक व महत्वहीन
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− | क़रार दिए जाते हों
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− | तो कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं।
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− | सामाजिक महत्व की
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− | गिलौरियाँ खाते हुए,
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− | असत्य की कुर्सी पर
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− | आराम से बैठे हुए,
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− | मनुष्य की त्वचाओं का पहने हुए ओवरकोट,
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− | बंदरों व रीछों के सामने
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− | नई-नई अदाओं से नाच कर
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− | झुठाई की तालियाँ देने से, लेने से,
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− | सफलता के ताले ये खुलते हैं,
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− | बशर्ते कि इच्छा हो
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− | सफलता की,
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− | महत्वाकांक्षा हो
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− | अपने भी बरामदे
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− | में थोड़ा सा फर्नीचर,
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− | विलायती चमकदार
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− | रखने की इच्छा हो
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− | तो थोड़ी सी सचाई में
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− | बहुत-सी झुठाई घोल
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− | सांस्कृतिक अदा से, अंदाज़ से
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− | अगर बात कर सको –
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− | भले ही दिमाग़ में
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− | ख़्यालों के मरे हुए चूहे ही
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− | क्यों न हों प्लेग के,
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− | लेकिन, अगर कर सको
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− | ऐसी जमी हुई ज़बान-दराजी और
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− | सचाई का अंग-भंग
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− | करते हुए झूठ का
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− | बारीक सूत कात सको
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− | तो गतिरोध और कंठरोध
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− | मार्गरोध कभी भी न होगा फिर
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− | कटवा चुके हैं हम पूंछ-सिर
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− | तो तुम ही यों
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− | हमसे दूर बाहर क्यों जाते हो?
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− | जवाब यह मेरा है,
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− | जाकर उन्हें कह दो कि सफलता के जंग-खाए
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− | तालों और कुंजियों
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− | की दुकान है कबाड़ी की।
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− | इतनी कहाँ फुरसत हमें –
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− | वक़्त नहीं मिलता है
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− | कि दुकान पर जा सकें।
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− | अहंकार समझो या सुपीरियारिटी कांपलेक्स
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− | अथवा कुछ ऐसा ही
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− | चाहो तो मान लो,
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− | लेकिन सच है यह
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− | जीवन की तथाकथित
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− | सफलता को पाने की
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− | हमको फुरसत नहीं,
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− | खाली नहीं हैं हम लोग!!
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− | बहुत बिज़ी हैं हम।
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− | जाकर उन्हें कह दे कोई
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− | पहुँचा दे यह जवाब;
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− | और अगर फिर भी वे
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− | करते हों हुज्जत तो कह दो कि हमारी साँस
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− | जिसमें है आजकल
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− | के रब्त-ज़ब्त तौर-तरीकों की तरफ़
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− | ज़हरीली कड़ुवाहट,
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− | ज़रा सी तुम पी लो तो
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− | दवा का एक डोज़ समझ,
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− | तुम्हारे दिमाग़ के
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− | रोगाणु मर जाएंगे
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− | व शरीर में, मस्तिष्क में,
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− | ज़बर्दस्त संवेदन-उत्तेजन
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− | इतना कुछ हो लेगा
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− | कि अकुलाते हुए ही, तुम
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− | अंधेरे के ख़ीमे को त्यागकर
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− | उजाले के सुनहले मैदानों में
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− | भागते आओगे;
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− | जाकर उन्हें कह दे कोई,
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− | पहुँचा दे यह जवाब!!
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