"जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर
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::गदरायी, | ::गदरायी, | ||
खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे | खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे | ||
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जीवन संघर्षों में घुमड़े | जीवन संघर्षों में घुमड़े | ||
::उमड़े चक्की के गीतों में | ::उमड़े चक्की के गीतों में | ||
कल्याणमयी करुणाओं के | कल्याणमयी करुणाओं के | ||
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हिन्दुस्तानी सपने निखरे — | हिन्दुस्तानी सपने निखरे — | ||
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जिस सुर को सुन | जिस सुर को सुन | ||
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कूएँ की सजल मुँडेर हिली | कूएँ की सजल मुँडेर हिली | ||
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प्रातः कालीन हवाओं में । | प्रातः कालीन हवाओं में । | ||
::सूरज का लाल-लाल चेहरा | ::सूरज का लाल-लाल चेहरा | ||
डोला धरती की बाहों में, | डोला धरती की बाहों में, | ||
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आसक्ति भरा रवि का मुख वह । | आसक्ति भरा रवि का मुख वह । | ||
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उसकी मेधाओं की ज्वालाएँ ऐसी फैलीं — | उसकी मेधाओं की ज्वालाएँ ऐसी फैलीं — | ||
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उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में | उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में | ||
:यों दावाग्नि लगी | :यों दावाग्नि लगी | ||
मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी | मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी | ||
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सिर जलता है, कन्धे जलते । | सिर जलता है, कन्धे जलते । | ||
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यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की | यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की | ||
:::रे नौजवान, | :::रे नौजवान, | ||
इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा | इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा | ||
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भौहों पर मेघों-जैसा | भौहों पर मेघों-जैसा | ||
:विद्युत भार | :विद्युत भार | ||
:विचारों का लेकर | :विचारों का लेकर | ||
पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए | पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए | ||
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वे दिशा-काल वन वातावरण-पटल जैसे | वे दिशा-काल वन वातावरण-पटल जैसे | ||
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चलते जन-जन के साथ | चलते जन-जन के साथ | ||
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वे हैं आगे वे हैं पीछे । | वे हैं आगे वे हैं पीछे । | ||
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अगजाजी खोहों और खदानों के | अगजाजी खोहों और खदानों के | ||
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तल में | तल में | ||
:ज्यों रत्न-द्वीप जलते | :ज्यों रत्न-द्वीप जलते | ||
त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में | त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में | ||
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जीवन के सत्य-दीप पलते !! | जीवन के सत्य-दीप पलते !! | ||
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11:16, 2 फ़रवरी 2009 का अवतरण
दुबली चम्पा
जन संघर्षों में
गदरायी,
खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे
जीवन संघर्षों में घुमड़े
उमड़े चक्की के गीतों में
कल्याणमयी करुणाओं के
हिन्दुस्तानी सपने निखरे —
जिस सुर को सुन
कूएँ की सजल मुँडेर हिली
प्रातः कालीन हवाओं में ।
सूरज का लाल-लाल चेहरा
डोला धरती की बाहों में,
आसक्ति भरा रवि का मुख वह ।
उसकी मेधाओं की ज्वालाएँ ऐसी फैलीं —
उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में
यों दावाग्नि लगी
मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी
सिर जलता है, कन्धे जलते ।
यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की
रे नौजवान,
इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा
भौहों पर मेघों-जैसा
विद्युत भार
विचारों का लेकर
पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए
वे दिशा-काल वन वातावरण-पटल जैसे
चलते जन-जन के साथ
वे हैं आगे वे हैं पीछे ।
अगजाजी खोहों और खदानों के
तल में
ज्यों रत्न-द्वीप जलते
त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में
जीवन के सत्य-दीप पलते !!