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"कहते, “रंजित करतीं जग को अमिता शरदेन्दु कलायें हैं / प्रेम नारायण 'पंकिल'" के अवतरणों में अंतर

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20:03, 2 फ़रवरी 2009 का अवतरण




कहते, “रंजित करतीं जग को अमिता शरदेन्दु कलायें हैं।
पर लिये पीर त्यागतीं सदन जिसमें व्याकुल वनितायें हैं।
मधुरास पूर्णिमा रजनी का वह मोहक चन्द्र और ही है।
प्रिय-रमण-भवन प्रस्थान-रता वनिता-गति मन्द और ही है।
नित शयन-सदन में कभीं सुमुखि रूठे मत आँखों की पुतरी।
इस अनुनय में ही सधीं कोटि पिक-कंठ रागिनी राग-भरी”।
हो कहाँ स्वयम्भू कवि! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥145॥