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+ | जैसे पार कर लेती है | ||
+ | गिलहरी | ||
+ | महीन तार पर | ||
+ | दो छोरों के बीच की दूरी | ||
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− | + | स्मृति है | |
− | + | कबूतर की तरह फड़फ़ड़ाती | |
− | + | और है इच्छा | |
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+ | हम झाँकते हैं जंगल में | ||
+ | और जंगल की फुनगियों पर | ||
+ | टँके आसमान को | ||
+ | पर समूचा विस्तार | ||
+ | सिमटकर | ||
+ | भीतर कहीं | ||
+ | भोर की घण्टियों की तरह | ||
+ | टुनटुनाता है | ||
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+ | पाँखुरी-पाँखुरी | ||
+ | बन जाती है तब | ||
+ | घाट में पगलाई | ||
+ | पुकार | ||
+ | और धुन्ध | ||
+ | अचानक | ||
+ | एक सुलगते हुए | ||
+ | पलाश-वन में | ||
+ | तब्दील हो जाती है | ||
+ | </Poem> |
00:55, 4 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण
यह धुन्ध
नहीं
कोई दीवार
कि छू न सकें
एक-दूसरे को
आर-पार
अपने-अपने
अकेलेपन को लाँघ
चल सकते हैं
एक-दूसरे के
अकेलेपन में
जैसे पार कर लेती है
गिलहरी
महीन तार पर
दो छोरों के बीच की दूरी
एक-दूसरे के बीच
स्मृति है
कबूतर की तरह फड़फ़ड़ाती
और है इच्छा
कंगूरों पर
धूप की तरह
अलसाती
ख़िड़की खोलकर
हम झाँकते हैं जंगल में
और जंगल की फुनगियों पर
टँके आसमान को
पर समूचा विस्तार
सिमटकर
भीतर कहीं
भोर की घण्टियों की तरह
टुनटुनाता है
पाँखुरी-पाँखुरी
बन जाती है तब
घाट में पगलाई
पुकार
और धुन्ध
अचानक
एक सुलगते हुए
पलाश-वन में
तब्दील हो जाती है