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"मुहब्बत बहार की फूलों की तरह / मीना कुमारी" के अवतरणों में अंतर
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फूटती मालूम हो रही है | फूटती मालूम हो रही है | ||
मुझे अपने आप पर एक | मुझे अपने आप पर एक | ||
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पुर सुकून झीलों | पुर सुकून झीलों | ||
रौशन पहाड़ों और | रौशन पहाड़ों और | ||
− | फूलों से ढके हुए गुमनाम | + | फूलों से ढके हुए गुमनाम ज़ंजीरों की तरफ लिये जा रहे हों |
वह और मैं | वह और मैं | ||
जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें | जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें | ||
− | अपने अनकहे, अनसुने | + | अपने अनकहे, अनसुने अल्फ़ाज़ में |
जुगनुओं की मानिंद रह रहकर चमकते दिखाई देते हैं | जुगनुओं की मानिंद रह रहकर चमकते दिखाई देते हैं | ||
हमारी गुफ़्तगू की ज़बान | हमारी गुफ़्तगू की ज़बान | ||
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और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर | और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर | ||
अपने पीछे | अपने पीछे | ||
− | रौशनी और शबनम के आँसु छोड़ जाती है, | + | रौशनी और शबनम के आँसु छोड़ जाती है, महबूब |
आह | आह | ||
मुहब्बत! | मुहब्बत! |
01:50, 4 फ़रवरी 2009 का अवतरण
मुहब्बत
बहार की फूलों की तरह मुझे अपने जिस्म के रोएं रोएं से
फूटती मालूम हो रही है
मुझे अपने आप पर एक
ऐसे बजरे का गुमान हो रहा है जिसके रेशमी बादबान
तने हुए हों और जिसे
पुरअसरार हवाओं के झोंके आहिस्ता आहिस्ता दूर दूर
पुर सुकून झीलों
रौशन पहाड़ों और
फूलों से ढके हुए गुमनाम ज़ंजीरों की तरफ लिये जा रहे हों
वह और मैं
जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें
अपने अनकहे, अनसुने अल्फ़ाज़ में
जुगनुओं की मानिंद रह रहकर चमकते दिखाई देते हैं
हमारी गुफ़्तगू की ज़बान
वही है जो
दरख़्तों, फूलों, सितारों और आबशारों की है
यह घने जंगल
और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर
अपने पीछे
रौशनी और शबनम के आँसु छोड़ जाती है, महबूब
आह
मुहब्बत!