भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बोरसी / स्वप्निल श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वप्निल श्रीवास्तव |संग्रह=ईश्वर एक लाठी है }} एक बोर...)
 
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=स्वप्निल श्रीवास्तव
 
|रचनाकार=स्वप्निल श्रीवास्तव
|संग्रह=ईश्वर एक लाठी है
+
|संग्रह=ईश्वर एक लाठी है / स्वप्निल श्रीवास्तव
 
}}
 
}}
  

08:36, 7 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण


एक बोरसी है मेरे घर में

मेर घर को किए हुए गर्म

हमारे अन्दर प्रवाहित करती हुई उष्मा


पोतनी मिट्टी से बनी हुई

पृथ्वी की तरह गोल

मज़बूत झाँवे की तरह पकी हुई

जैसे वह कुम्हार की चाक पर ढाली गई हो

माँ के हाथों बनाई गई बोरसी


सोने के पहले बोरसी में माँ

रखती है लकड़ी-लगावन, धान की भूसी


सुबह उठता हूँ

देखता हूँ बोरसी में दहकती हुई आग

और उसके ऊपर परिवार के

सभी जनों की फैली हुई हथेलियाँ


कहती है माँ ज़्यादा खुदुर-बुदुर न करो

ज़िन्दा रहने दो बोरसी में आग


धूप निकलते बोरसी से छिटक कर घमौनी करने

चले जाते हैं परिवार-जन

और माँ

बोरसी पर झुकी हुई रहती है

जब तक रहती है बोरसी में आग